Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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कर्मस्तव - द्वितीय कर्मग्रंथ
तह थुणिमो वीरजिणं, जह गुणठाणेसु, सयलकम्माई । बंधुदओदीरणया - सत्तापत्ताणि खविआणि ॥ १ ॥
भावार्थ : जिस प्रकार वीर प्रभु ने गुणस्थानकों में बंध उदय, उदीरणा और सत्ता को प्राप्त कर सभी कर्मों को नष्ट किया है, उस प्रकार से हम वीर प्रभु की स्तुति करते हैं ॥१॥ मिच्छे सासण मीसे, अविरय देसे पमत्त अपमत्ते; ।
निअट्टि अनि अट्टि, सुहुमुवसम खीणसजोगिअजोगिगुणा ॥ २ ॥ भावार्थ : १. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादन ३. मिश्र ४. अविरत सम्यग्दृष्टि ५. देशविरति ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९ अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्म संपराय ११. उपशांतमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगी केवली १४. अयोगी केवली ॥२॥
अभिनवकम्मग्गहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीससयं; । तित्थयराहारगदुग- वज्जं मिच्छंमि सतरसयं ॥ ३ ॥
भावार्थ : नए कर्मों को ग्रहण करना, उसे बंध कहते हैं । सामान्य से अर्थात् किसी जीवस्थान गुणस्थानक की विवक्षा किए बिना बंध योग्य 120 कर्म प्रकृतियाँ हैं ||३|| कर्मस्तव - द्वितीय कर्मग्रंथ
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