Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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खवगं तु पप्प चउसुवि, पणयालं निरयतिरिसुराउ विणा ; । सत्तगविणु अडतीसं, जा अनिअट्टि -पढमभागो ॥ २७ ॥
भावार्थ : क्षपक की अपेक्षा अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानकों में नरकआयु, तिर्यंचआयु और देवायु को छोड़कर 145 प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं । अनिवृत्ति गुणस्थानक के पहले समय में सप्तक के बिना 138 प्रकृतियाँ होती हैं ||२७||
थावरतिरिनिरयायव-दुग थीणतिगेग विगल साहारं; । सोलखओ दुवीससयं, बिअंसि बिअतिअकसायंतो ॥२८॥
भावार्थ : स्थावरद्विक, तिर्यंचद्विक नरकद्विक, आतपद्विक, थीणद्धित्रिक, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रिय जाति और साधारण, इन 16 प्रकृतियों का क्षय होने से दूसरे भाग में सत्ता में 122 कर्मप्रकृतियाँ रहती है । दूसरे और तीसरे कषाय का अंत होने से तीसरे भाग में सत्ता में 114 कर्मप्रकृतियाँ रहती हैं ।
नपुंसक वेद का क्षय होने से चौथे भाग में 113 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है ॥२८॥
तइआइसु चउदसतेर बारछपण - चउतिहियसय कमसो; । नपुइत्थिहासछगपुंस तुरिअकोह मय - माय - खओ ॥ २९ ॥
कर्मस्तव - द्वितीय कर्मग्रंथ
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