Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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तिर्यंचआयुष्य और मनुष्यआयुष्य रहित बंध होता है । वेदत्रिक प्रथम, द्वितीय और तृतीय कषाय में क्रमशः नौ, दो, चार और पाँच गुणस्थानक होते हैं ॥१७॥ संजलणतिगे नव दस, लोभे चउ अजइ दुति अनाणतिगे;। बारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहखाय चरिमचउ ॥१८॥
भावार्थ : संज्वलन त्रिक में 9, लोभ में 10, अविरति चारित्र में 4, अज्ञानत्रिक में 2, चक्षु-अचक्षुदर्शन में पहले बारह, यथाख्यात चारित्र में अंतिम चार गुणस्थानक होते हैं ॥१८॥ मणनाणि सग जयाई, समईअच्छेअचउ दुन्नि परिहारे; । केवलदुगि दो चरमा-जयाई नव मईसुओहिदुगे ॥ १९ ॥
भावार्थ : मनःपर्यवज्ञान में प्रमत्त से 7 गुणस्थानक, सामायिक, छेदोपस्थापनीय में चार गुणस्थानक, परिहारविशुद्धि में दो गुणस्थानक, केवलद्विक में अंतिम दो गुणस्थानक तथा मति-श्रुत ज्ञान व अवधिद्विक में अविरति आदि नौ गुणस्थानक होते हैं ॥१९॥ अडउवसमि चउ वेअगि, खइए इक्कार मिच्छतिगि देसे; । सुहुमिसठाणं तेरस, आहारगि निअनिअगुणोहो ॥२०॥
भावार्थ : उपशम सम्यक्त्व में अविरति आदि आठ गुणस्थानक, क्षयोपशम सम्यक्त्व में चार गुणस्थानक, क्षायिक
कर्मग्रंथ