Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 45
________________ छनवइ सासणि विणु सुहुमतेर, केइ पुणबिंति चउनवइ । तिरिअनराऊहिं विणा, तणुपज्जत्तिं न जंति जओ ॥१३॥ भावार्थ : सात मार्गणावाले जीव सूक्ष्म आदि तेरह प्रकृतियों के बिना सास्वादन में 96 प्रकृतियों का बंध करते ___ कुछ आचार्यों के मतानुसार तिर्यंच आयुष्य और मनुष्य आयुष्य के बिना सास्वादन में 94 प्रकृतियों का बंध होता है, क्योंकि सास्वादन में वे जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते हैं ॥१३॥ ओहु पणिंदितसे गइ-तसे जिणिक्कारनरतिगुच्चविणा; । मणवयजोगे ओहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से ॥ १४ ॥ भावार्थ : पंचेन्द्रिय जाति और त्रस काय मार्गणा में सामान्य से ओघ बंध होता है, गतित्रस (तेउकाय-वायुकाय) में जिननाम आदि ग्यारह तथा मनुष्यत्रिक व उच्चगोत्र विना शेष १०५ का बंध होता है। मनयोग व वचनयोग में ओघ से बंध होता है । औदारिक काययोग में मनुष्य के समान बंध होता हैं । औदारिकमिश्र में आगे कहते हैं ॥१४॥ आहारछगविणोहे, चउदससउ मिच्छि जिणपणगहीणं । सासणि चउनवइ विणा, तिरिअनराउ सुहुमतेर ॥ १५ ॥ कर्मग्रंथ ४४

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