Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
View full book text
________________
I
पणसीइ सजोगि अजोगि - दुरिमे देवखगईगंधदुगं; । फासट्ठ वन्नरसतणु-बंधणसंघायपण निमिणं ॥ ३१ ॥ संघयणअथिरसंठाण- छक्क अगुरुलहुचउ अपज्जत्तं; । सायं व असायं वा, परित्तुवंगतिग सुसर निअं ॥ ३२ ॥ भावार्थ : सयोगी गुणस्थानक में सत्ता में 85 प्रकृतियाँ रहती हैं । अयोगी गुणस्थानक के द्विचरम समय में देव द्विक, विहायोगति द्विक, गंध द्विक, आठ स्पर्श, पाँच वर्ण, पाँच रस, पाँच शरीर, पाँच बंधन, पाँच संघातन, निर्माण, छ: संघयण, अस्थिर षट्क, छः संस्थान, अगुरुलघु चतुष्क, अपर्याप्त, शाता अथवा अशाता, प्रत्येक त्रिक, उपांग त्रिक, सुस्वर और नीच गोत्र इन 72 प्रकृतियों का क्षय होता है ॥३१॥ - ॥३२॥
बिसयरिखओ अ चरिमे, तेरसमणुअतसतिगजसाइज्जं; । सुभग- जिणुच्च - पणिदिअ-सायासाएगयर-छेओ ॥३३॥ नरअणुपुव्विविणा वा, बारस चरिमसमयमि जो खविउं; । पत्तो सिद्धि देविंद - वंदिअं नमह तं वीरं ॥ ३४ ॥
भावार्थ : अयोगी गुणस्थानक के द्विचरम समय में 72 प्रकृतियों का क्षय होता है और अंतिम समय में मनुष्यत्रिक, त्रसत्रिक, यश, आदेय, सुभग, जिन - नाम, उच्च
कर्मस्तव - द्वितीय कर्मग्रंथ
३७