Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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भावार्थ : अपूर्वकरण गुणस्थानक के पहले भाग में 58 प्रकृतियों का बंध होता है । वहाँ निद्राद्विक का अंत होता है । अर्थात् दूसरे से छठे भाग तक के 5 भाग में 56 प्रकृतियों का बंध होता है ||९||
समचउरनिमिणजिणवन्न - अगुरुलहुचउछलंसि तीसंतो; । चरमे छवीसबंधो, हास - रई - कुच्छ भय-भेओ ॥ १० ॥
भावार्थ : छठे भाग के अंत में सुरद्धिक, पंचेन्द्रिय जाति, शुभ विहायोगति, त्रस आदि 9, औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग सिवाय के शरीर और अंगोपांग, समचतुस्र संस्थान, निर्माण, जिननाम, वर्ण आदि चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क इन 30 प्रकृतियों का बंध विच्छेद होता है अर्थात् अंतिम भाग में 26 कर्मप्रकृतियों का बंध होता है, वहाँ हास्य, रति, जुगुप्सा और भय के बंध का विच्छेद होता है ॥१०॥
अनि अट्टि - भागपणगे, इगेगहीणो दुवीसविहबंधो; । पुम संजलण - चउण्हं, कमेण छेओ सतर सुहुमे ॥ ११ ॥
भावार्थ : अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक के 5 भाग करें (1) उसके पहले भाग में 22 प्रकृति का बंध होता है, फिर पुरुषवेद और संज्वलन चतुष्क इन पाँच में से एक-एक का
कर्मग्रंथ
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