Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 15
________________ बाहरु पिट्ठि सिर उर, उयरंग उवंग अंगुलीपमुहा, । सेसा अंगोवंगा, पढमतणुतिगस्सुवंगाणि ॥ ३४ ॥ दो भुजा, दो जंघा, पीठ, मस्तक, हृदय और उदर, ये आठ अंग होते हैं । अंगुली आदि उपांग कहलाते हैं। शेष (रेखा आदि) अंगोपांग कहलाते हैं । प्रथम तीन शरीरों में ही अंग, उपांग एवं अंगोपांग होते हैं ॥३४॥ उरलाइ-पुग्गलाणं, निबद्ध-बज्झंतयाण संबंधं, । जं कुणइ जउसमं तं, बंधण-मुरलाइतणुनामा ॥ ३५ ॥ पूर्व में बंधे हुए और नये बंध रहे औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों में परस्पर संयोग / संबंध स्थापित करने वाले कर्म को औदारिक आदि बंधन नाम कर्म कहते हैं । औदारिक आदि पांच शरीर के नाम वाले पांच प्रकार के बंधन नाम कर्म लाख के समान कहे गए हैं ॥३५॥ जं संघायइ, उरलाइ - पुग्गलेतिणगणं व दंताली, । तं संघायं बंधणमिव - तणुनामेण पंचविहं ॥ ३६ ॥ __ जिस प्रकार दंताली बिखरे हुए तृण (घास) को एकत्र करती हैं, उसी प्रकार औदारिक आदि पुद्गलों को एकत्र करके प्रदान करने वाला संघातन नाम कर्म हैं । इसके भी बंधन नाम कर्म की भाँति औदारिक आदि के नाम से पाँच प्रकार होते हैं ॥३६॥ कर्मग्रंथ

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