Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 23
________________ ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञान-प्राप्ति के साधनों के प्रति अनिष्ट आचरण करने से, अपलाप करने से, हनन करने से, द्वेष करने से एवं अतिशय आशातना करने से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है । दर्शन, दर्शनी, दर्शन के साधनों के प्रति उपरोक्त कारणों से दर्शनावरणीय कर्म बंधता है ॥५४॥ गुरु-भत्ति-खंति-करुणा, । वय-जोग-कसाय-विजय-दाण जुओ, । दढधम्माइ अज्जइ, सायमसायं विवज्जयओ ॥ ५५ ॥ गुरू-भक्ति, क्षमा, करुणा, व्रतपालन, योगों की शुभ प्रवृत्ति, कषाय-विजय, दान और धर्म कार्य में दृढ़ता आदि शाता वेदनीय कर्म बंध के हेतु हैं। इसके विपरीत आचरण से अशाता वेदनीय कर्म का बंध होता है ॥५५।। उम्मग्गदेसणा-मग्ग-नासणा-देवदव्वहरणेहिं, । दसणमोहं जिणमुणि-चेइअ-संघाई-पडिणीओ ॥ ५६ ॥ उन्मार्ग की देशना (प्ररूपणा) करने से, सन्मार्ग का नाश करने से, देवद्रव्य का हरण करने से तथा जिनेश्वर परमात्मा, मुनि, जिनप्रतिमा और चतुर्विध संघ आदि का विरोधी/शत्रु होने से (जीव) दर्शन मोहनीय कर्म का बंध करता है ॥ ५६ ॥ दुविहंपि चरणमोहं, कसायहासाइ-विसय-विवसमणो, ।। बंधइ निरयाउ महा-रंभपरिग्गहो-रओ रुद्दो ॥ ५७ ॥ कर्मग्रंथ

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