Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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नील-कसिणं दुगंधं, तित्तं कडुअं गुरुं खरं रुक्खं । सीअं च असुहनवगं, इक्कारसगं सुभं सेसं ॥ ४२ ॥
वर्ण-गंध-रस-स्पर्श नाम कर्म की बीस प्रकृतियों में से नौ प्रकृतियाँ अशुभ हैं- (१) नील वर्ण (२) कृष्ण वर्ण (३) दुर्गंध (४) तिक्त रस (५) कटुक रस (६) गुरु स्पर्श (७) कर्कश स्पर्श (८) रुक्ष स्पर्श (९) शीत स्पर्श । शेष ग्यारह प्रकृतियाँ शुभ कही गयी हैं ॥४२॥
चउहगइव्व णुपुव्वी, गइपुव्विदुगं तिगं नियाउजुअं, । पुव्वीउदओ वक्के, सुहअसुहवसुट्टविहगई ॥ ४३ ॥
गति नामकर्म की भाँति आनुपूर्वी नामकर्म भी चार प्रकार के हैं (१) नरकानुपूर्वी (२) तिर्यंचानुपूर्वी (३) मनुष्यानुपूर्वी (४) देवानुपूर्वी । गति और आनुपूर्वी द्विक कहलाती हैं । उसमें स्वयं का आयुष्य जोड़ने पर त्रिक कहा जाता है । आनुपूर्वी का उदय वक्र गति में होता है ।
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दो प्रकार की विहायोगति कही गयी है- शुभ विहायोगति एवं अशुभ विहायोगति । शुभ विहायोगति वृषभ की चाल की भाँति और अशुभ विहायोगति ऊँट की चाल की भाँति कही गयी है ॥४३॥
परघा - उदया पाणी, परेसिं बलिपि होइ दुद्धरिसो, । ऊससण-लद्धिजुत्तो, हवेइ ऊसासनाम - वसा ॥ ४४ ॥
कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ
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