Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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त्रसचतुष्क, स्थिरषट्क, अस्थिरषटक, सूक्ष्मत्रिक, स्थावरचतुष्क, सौभाग्य त्रिक आदि संज्ञाएं संख्यानुसार प्रकृति की आदि (शुरू) से गिननी चाहिये ॥२८॥ वन्नचउ-अगुरु लहु चउ, तसाइ-दु-ति-चउर-छक्कमिच्चाई, । इअ अन्नावि विभासा, तयाइसंखाहि पयडीहिं ॥ २९ ॥
वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस द्विक, त्रस त्रिक, त्रस चतुष्क, त्रस षट्क इत्यादि की भाति अन्य संज्ञाए भी उस-उस कर्म (प्रकृति) के आदि (शुरूआत) में रखकर उतनी संख्यावाली प्रकृतियों द्वारा करनी चाहिये ॥२९॥ गइआईण उ कमसो, चउपण-पणतिपण-पंच छ-छक्कं, । पणदुग-पणठ्ठचउदुग, इअ उत्तरभेय पणसट्ठी ॥ ३० ॥ ___गति आदि चौदह पिंड प्रकृतियों के अनुक्रम से चार, पाँच, पाँच, तीन, पाँच, पाँच, छह, छह, पाँच, दो, पाँच,
आठ, चार और दो उत्तरभेद होने से कुल पैंसठ भेद होते हैं ॥३०॥ अडवीसजुआ त्तिनवइ - संते वा पनरबंधणे तिसयं, । बंधणसंघायगहो, तणूसु सामन्न-वण्णचऊ ॥ ३१ ॥
(पूर्वोक्त गाथा में बताये गए पैंसठ भेदों में) अट्ठाईस भेद जोड़े जाएँ तो नाम कर्म के ९३ भेद होते हैं। वे सत्ता में गिने जाते हैं । पाँच के स्थान पर पन्द्रह बंधन गिने जाएँ
कर्मग्रंथ