Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 12
________________ पिंडपयडित्ति चउदस, परघा - ऊसास- आयवुज्जो, । अगुरुलहु-तित्थ निमिणो, वघायमिअ अट्ठ पत्तेआ ॥२५॥ पूर्वोक्त गाथा में कही गई (गति, जाति आदि) कुल चौदह पिंड प्रकृतियाँ हैं । प्रत्येक प्रकृतियाँ आठ हैं- (१) पराघात (२) उच्छ्वास (३) आतप (४) उद्योत (५) अगुरुलघु (६) तीर्थंकर (७) निर्माण और (८) उपघात ॥२५॥ तस-बायर-पज्जत्तं, पत्तेय-थिरं सुभं च सुभगं च, । सुसराइज्जजसं तस-दसगं थावरदसं तु इमं ॥ २६ ॥ १. त्रस २. बादर ३. पर्याप्त ४. प्रत्येक ५. स्थिर ६. शुभ ७. सौभाग्य ८. सुस्वर ९. आदेय और १०. यश नाम कर्म, यह त्रस दशक कहलाता है । इसके विपरीत स्थावर दशक इस प्रकार हैं ॥२६॥ थावर-सुहम-अपज्जं, साहारण-अथिर-असुभ-दुभगाणि, । दुस्सर-णाइज्ज-जस मिअ नामे सेअरा वीसं ॥ २७ ॥ १. स्थावर २. सूक्ष्म ३. अपर्याप्त ४. साधारण ५. अस्थिर ६. अशुभ ७. दौर्भाग्य ८. दुःस्वर ९. अनादेय १०. अपयश, ये स्थावर दशक कहलाते हैं । नाम कर्म में स्थावर दशक और उसके विपरीत (प्रतिपक्ष) त्रस दशक सहित बीस प्रकृतियाँ होती हैं ॥२७॥ तसचउ थिरछक्कं अथिरछक्कं सुहुमतिग थावरचउक्, । सुभगतिगाइ विभासा, तयाइसंखाहि पयडीहिं ॥ २८ ॥ कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ

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