Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 11
________________ पुरिसित्थितदुभयंपइ अहिलासो जव्वसा हवई सो उ, । थी-नर-नपु-वेउदओ, फुफुम-तण-नगर दाहसमो ॥ २२ ॥ जिस कर्म के उदय से जीव को पुरुष के प्रति, स्त्री के प्रति और उभय (स्त्री-पुरुष) दोनों के प्रति भोग भोगने की अभिलाषा होती है, उन्हें अनुक्रम से स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद कहते हैं । ये तीनों वेद अनुक्रम से बकरी के मल की अग्नि के तुल्य, घास की अग्नि के तुल्य और नगराग्नि के तुल्य जानने चाहिये ॥२२॥ सुर नर तिरि-निरयाऊ, हडिसरिसं नामकम्म चित्तिसमं, । बायाल-तिनवइविहं, तिउत्तरसयं च सत्तट्ठी ॥ २३ ॥ आयुष्य कर्म को बेड़ी के समान कहा गया है। यह चार प्रकार का है- (१) देवायुष्य (२) मनुष्य आयुष्य (३) तिर्यंच आयुष्य और (४) नरक आयुष्य । नाम कर्म चित्रकार के समान है। उसकी अपेक्षा बुद्धि से चार प्रकार के भेद हैं-(१) बयालीस भेद (२) तिरानवे भेद (३) एक सौ तीन भेद (४) सड़सठ भेद ॥२३॥ गइ-जाइ तणु उवंगा, बंधण-संघायणाणि संघयणा, । संठाण वण्णगंधरस-फास-अणुपुव्वि विहगगइ ॥ २४ ॥ गति, जाति, शरीर, उपांग, बंधन, संघातन, संघयण, संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वी और विहायोगति, ये चौदह पिण्ड प्रकृतियाँ हैं ॥२४॥ कर्मग्रंथ

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