Book Title: Karmgranth 01 02 03 Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 4
________________ कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ सिरिवीरजिणं वंदिअ, कम्मविवागं समासओ वुच्छं, । कीरई जिएण हेउहि, जेणं तो भन्नए कम्मं ॥१॥ श्री 'महावीर' जिनेश्वर परमात्मा को वंदन करके संक्षिप्तथोड़े कथन में 'कर्मविपाक' नामक प्रथम कर्मग्रंथ को कहता हूँ। जीव के द्वारा जिन हेतुओं (मिथ्यात्व, असंयम आदि) से जो क्रिया की जाती है, उसे कर्म कहा जाता है। ॥ १ ॥ पयई-ठिइ-रस-पएसा, तं चउहा मोअगस्स दिटुंता, । मूल-पगइट्ठ उत्तर-पगइ अडवनसयभेयं ॥ २ ॥ ___कोई भी कर्म प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश रूप चार प्रकार से बंधता है, जिसे मोदक के दृष्टान्त से समझना चाहिये । उसके मूल भेद आठ एवं उत्तरभेद एक सौ अट्ठावन हैं ॥ २ ॥ इह नाणदंसणावरण-वेअमोहाउ-नामगोआणि, । विग्धं च पणनवदु-अट्ठवीस चउतिसयदुपणविहं ॥३॥ कर्म के मूल रूप से आठ भेद होते हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथPage Navigation
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