Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 7
________________ (५) प्रकाशकीय बोल धर्म और कर्म अध्यात्म जगत के ये दो अद्भुत शब्द हैं, जिन पर चैतन्य जगत की समस्त क्रिया/प्रतिक्रिया आधारित है। सामान्यतः धर्म शब्द मनुष्य के मोक्ष/मुक्ति का प्रतीक है और कर्म शब्द बन्धन का । बंधन और मुक्ति का ही यह समस्त खेल है। प्राणी / कर्मवद्ध आत्मा प्रवृत्ति करता है, कर्म में प्रवृत्त होता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है, कर्म से मुक्त होने के लिए फिर धर्म का आचरण करता है, मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। "कर्मवाद" का विषय बहुत गहन गंभीर है, तथापि कर्म - बन्धन से मुक्त होने के लिए इसे जानना भी परम आवश्यक है। कर्म सिद्धान्त को समझे बिना धर्म को या मुक्ति मार्ग को नहीं समझा जा सकता। हमें परम प्रसन्नता है कि जैन जगत के महान मनीषी, चिन्तक/लेखक आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज ने 'कर्म-विज्ञान" नाम से यह विशाल ग्रंथ लिखकर अध्यात्मवादी जनता के लिए महान उपकार किया है । यह विराट् ग्रंथ लगभग ४००० पृष्ठ का होने से हमने छह भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में कर्मवाद पर दार्शनिक एवं वैज्ञानिक चर्चा है तथा दूसरे भाग में पुण्य-पाप पर विस्तृत विवेचन है। तृतीय भाग में आस्रव एवं संवर पर तर्क पुरस्सर विवेचन हुआ है। चतुर्थ भाग में कर्म प्रकृतियों का विस्तृत वर्णन है। अब पाँचवें भाग में कर्मबन्ध की विशेष दशाओं का मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर विवेचन किया गया है। अभी भी कर्म सिद्धान्त का समग्र विवेचन समाप्त नहीं हुआ है। सम्भवतः छठे भाग में यह परिपूर्ण हो . जायेगा । कर्म विज्ञान के मुद्रण प्रकाशन में समाज के उदारमना धर्मनिष्ठ श्रावक तथा उद्योगपति श्रीमान डा. चम्पालालजी देशरडा का अनुकरणीय सहयोग प्राप्त हुआ है। द्वितीय भाग के प्रकाशन में आपने सम्पूर्ण सहयोग प्रदान किया था, तब से आपश्री के हृदय में पूज्य गुरुदेव के साहित्य के प्रति इतना आकर्षण / अनुराग उत्पन्न हुआ है कि प्रत्येक भाग के प्रकाशन का सम्पूर्ण व्यय भार आपश्री ने ही बड़ी भक्ति और आग्रह पूर्वक स्वीकार किया है। तृतीय, चतुर्थ, और पंचम भाग में, तथा अन्य साहित्य प्रकाशन में भी आपश्री का सदा सहयोग मिलता रहा है। इस अनुकरणीय उदारता, गुरु भक्ति तथा साहित्य प्रचार की सुसंस्कृत रुचि के लिए हम आपको किन शब्दों में धन्यवाद देवें । आशा करते हैं, समाज के अन्य • उदारचेता सज्जन भी आपका अनुसरण करेंगे। प्रकाशन में सहयोगी सभी बन्धुओं के प्रति हार्दिक धन्यवाद के साथ Jain Education International चुन्नीलाल धर्मावत कोषाध्यक्ष श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 614