Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04 Author(s): Arunvijay Publisher: ZZZ UnknownPage 16
________________ पर्याय से जीव का धीरे-धीरे विकास होता हुमा जीव अन्त में पंचेन्द्रिय पर्याय में आता है । आगे पंचेन्द्रिय पर्याय में मनुष्य में आना अन्तिम विकास है । विकासवाद समाप्त हो गया तो फिर किसी का मोक्ष भी नहीं होगा । कुछ भी नहीं ! तो फिर धर्म-करना या कर्मक्षय करना सब कुछ निरर्थक हो जायेगा। संसार एक स्थिर स्वरूप में मानना पड़ेगा। फिर तो पाप-पुण्य निष्फल हो जायेंगे। पापकर्मानुसार कोइ नरक में जाए और फल भोगे यह भी नहीं रहेगा। उसी तरह किए हुए पुण्यानुसार कोई स्वर्गादि स्वर्गादि देवगति में जायेगा यह भी नहीं रहेगा। तो फिर क्यों कोई पापपुण्य करेगा ? स्वर्गवास लिखना भी निरर्थक होगा । मूर्खता होगी। इस तरह सैकड़ों विसंगतियां पायेगी । कर्मवाद भी नहीं रहेगा और ईश्वर कर्तृत्ववाद भी नहीं रहेगा। क्या करेगा ईश्वर ? जवकि सृष्टिकर्ता और फलदाता दोनों स्वरूप में ईश्वर को मानने वालों ने माना है। परन्तु ऐसी स्थिति में ईश्वर की कोई उपयोगिता नहीं रहेगी। ईश्वर निष्क्रिय-निरर्थक सिद्ध हो जायेगा तो जगत् कर्तृत्ववादी के पास कोई उत्तर नहीं रहेगा। फिर प्रश्न यह उठेगा कि ऐसी नित्यभावमयी सृष्टि ईश्वर की निरर्थकता और निष्क्रियता में कैसे बनी ? कब बनी ? क्यों बनी ? किसने बनाई ? बनाई तो फिर प्रलय का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता ! बनाई तो फिर क्यों पहले से किसी को एकेन्द्रिय में रखा और क्यों किसी को पंचेन्द्रिय में रखा ? अच्छा जिसको पंचेन्द्रिय मनुष्य में भी रखा उसका भी स्थान वहां निष्फल है। करना-धरना तो कुछ नहीं। चूंकि परिवर्तन तो सम्भव ही नहीं है। फिर क्या करना है ? क्यों करना है ? ईश्वरोपासना भी करके क्या फायदा ? अतः यह पक्ष सम्भव नहीं है। युक्तिसंगत नहीं है। गणधरवाद में पांचवें गणधर सुधर्मास्वामी को अपने पूर्व काल में जन्मजन्मान्तर साद्दश्य की धारणा थी। यह उनका पक्ष था । वे देद वाक्य का अर्थ ऐसा करते थे कि-"पुरुषो मृतः सन पुरुषत्वमेवाश्नुते, पशवः पशुत्वम्" अर्थात् पुरुष मर कर परभव में पुरुष ही बनता है। पशु मरकर पशु ही होता है। कारण सदृश कार्य को मानने की विचारधारा वाला वह अग्निवेश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण सुधर्मा था। लेकिन सामने दूसरा वेदवाक्य ऐसा आया कि-"शृगालो वै एष जायते य: स पुरोषो दह्यते।" जिसको मल सहित जलाया जाता है वह मरकर शृगाल रूप में जन्म लेता है । इस तरह परस्पर विरोधी वाक्यों के आने से विरोधाभास खड़ा हुआ है। परन्तु ऐसा नहीं है। कारण सदृश भी कार्य सदृश होता है और कारण से कार्य विचित्र भी होता है । कारण रूप में जीव के कर्म हैं अतः कर्मानुसारी कार्य होगा। जन्मानुसारी जन्म नहीं अपितु कर्मानुसारी जन्म होता है। अत: भवान्तर सादृश्य कर्म की गति न्यारीPage Navigation
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