Book Title: Kamghat Kathanakam
Author(s): Gangadhar Mishr
Publisher: Nagari Sahitya Sangh

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Page 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका इस पुस्तक के प्रकाशक श्री इन्द्रचन्द्रजी नहाटा ने श्रीमान् विजय राजेन्द्र सुरीश्वर द्वारा विरचित तथा पंडित गंगाधर मिश्र द्वारा अनूदित इस पुस्तक के सम्बन्ध में दो शब्द लिखने के लिये मुझ से कहा है। यह जैन मतानुयायी पुस्तक है परन्तु जिस तत्व ज्ञान को भारतीय तत्व ज्ञान की संज्ञा दी जाती है और जो आध्यात्मिक आधि दैविक तथा आधि भौतिक इन तीनों क्षेत्रों में मनुष्य जीवन का विश्लेषण करके सिद्धान्त प्रस्थापित करने का यत्न करता है उसकी विशेषता यह है कि वह विभिन्न मतों का संग्राहक है न कि विध्वंसक क्योंकि अन्यान्य मतों में जो अन्तर रहता है वह इतना सूक्ष्म होता है कि उससे मोटी मोटी बातों में भिन्नता का कोई प्रत्यय प्राप्त नहीं होता। इस दृष्टि से यह पुस्तक जितनी जैन मतानुयायियों को रोचक होगी उतनी ही वह दूसरे मतानुयायियों को भी रोचक होगी, ऐसी मेरी आशा है । यों तो इस पुस्तक में दो कथाएँ हैं और उनमें से पहले कथानक में राजा के मंत्रीने भगवान की भक्ति कर जो कामघट प्राप्त किया उसके फल स्वरूप ही इस पुस्तक का नाम “कामघट कथानकम्” निश्चित हुआ। दोनों कथाओं का उद्देश्य केवल एक है। वह यही है कि समाज में नैसर्गिक कारणों से प्रचलित रहने वाली पाप बुद्धि का दमन हो और धर्म बुद्धि का समर्थन हो। दोनों कथाओं में पाप बुद्धि राजाओं ने अपने धर्म बुद्धि मंत्रियों का उपदेश नहीं माना और उन मंत्रियों ने उसके कारण उन्हें छोड़ कर दूसरे देशों में जाकर अपने धर्म प्रभाव से ऐश्वर्य प्राप्त करके दिखाया। आनुसंगिक रूप में धर्म बुद्धि का कुछ वर्णन तथा विश्लेषण पुस्तक में किया गया है और पाप बुद्धिका भी । यह असम्भव नहीं है कि ऐसा भी आक्षेप उठाया जावे कि इस विज्ञान के युग में इस प्रकार के ग्रन्थों से देश को कोई लाभ न होगा। मुझे ऐसे आक्षेप की यथार्थता के सम्बन्ध में बहुत संशय होता है। विज्ञान तो केवल मनुष्य और निसर्ग के पारस्परिक सम्बन्धों का नियंत्रण करता है परन्तु अन्तिम रूप में मनुष्य की मानवता मनुष्य के आन्तरिक विकार तथा विचार पर ही निर्भर रहती है। व्यक्ति का कल्याण और समाज का कल्याण इस ध्येय प्राप्ति के लिये विकार तथा विचारों को प्रभावित करने के हेतु कथाओं के रूप में साहित्य लिखने की परिपाटी संस्कृत में पुरातन काल से प्रचलित है सम्भवतः कुछ अंश तक For Private And Personal Use Only

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