Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya
View full book text
________________
श्रीभज्ञातसूरिविरचिता
चितमाह सिद्धांत वचन किसिउं सांभरिउं ! जं सांभलि [सात] वाहण राजा श्रीकालिकसूरिनई आग्रह पांचमि कुं चउथई पजूसण आणि ॥५५॥
यथा चतुर्थ्यां जिनवीरवाक्यात्, संवेन मन्तव्यमहो ! तदेव । प्रवर्तितं पर्युषणाख्यपर्व, यथेयमाज्ञा महती सदैव ॥५६॥
१७०
जिम जिन श्रीमहावीरि इम कहिउँ छद सिद्धांतमाहि । श्रीसंघनी अनुमति कालिकसूरिइं पांचमि थकुं पजूसण चउपि (थि)ई करई तिम आधुं सदाइ सविहुं कुणिहि मानिबुं । जिननूं वचन एहवुं छह, तेह भणी भाज लाइ चउत्थिई पजूसण हुइ छइ ॥५६॥
( ४ )
"
अथान्यदा कालवशेन सर्वान् प्रमादिनः सूरिवराश्च साधून् । त्यक्त्वा गताः स्वर्णमही पुरस्थानेकाकिनः सागरचन्द्रसूरीन् ||५७||
अथ एतलानु अनंतर कालनई विशेषिई श्रीकालिकसूरिना परिवारना साधु महात्मा प्रमादीया थिय । गुरु महात्मानई सूता मेल्ही स्वर्णपुर नगरि सागरचंद्रसूरि छइ तिहां पुहता | तिहां आल्या एकला सागरचंद्रसूरिहं न ओलख्या । रूप ब(प) रावर्त्तपणई करी । पोसालमाहि डोसु तपोधन एकईं पासई आवी रहिउ ॥५७॥
तेषां समीपे मुनिपः स तस्थौ, ज्ञातो न केनापि तपोधनेन । शय्यातराद् ज्ञातयथार्थवृत्ताः प्रमादिनस्ते मुनयस्तमीयुः ||५८ ||
तिसिइ पठाण पुर पाटणि शय्यातर श्रावके महात्मा हाकी करी काढया । स्वर्णपुर भणी आव्या । सागरचंद्रसूरे पूछिउँ गुरु किहां छ ! पहि[ला ] आल्या ते कहिउ | गुरु पाछलि आवई छई । सागरचंद्रसूरि साहमा गिआ। पाछिला महात्मा पूछ्या, ते कहई; " गुरु आगलि पुहता " । सघले कुडउ बोलउ । पछइ सागरचंद्रसूरे पोसालइ आवी ते वृद्धगुरु भणी मानी पगि लागी खमावीनई समस्त महात्माए स्वमावी करी गुरु मनान्या ॥५८॥
( ५ )
जिनेश्वरः पूर्वविदेहवर्ती, सीमन्धरो बन्धुरवाग्विलासः । निगोदजीवानतिसूक्ष्मकायान् सभासमक्षं स समादिदेश ॥ ५९ ॥
"
श्रीकालिकसूरि आपणा परिवार सहित पठाण पुरि पाटणि समाधिई रह्या छई । इसिइ समह सौधर्मेन्द्र महाविदेहि क्षेत्र श्रीसीमंधरस्वामि कहलि बइठा हता | श्रीसीमंधरस्वामि उपदेश देतां धर्मन अधिकार आवि । विचार करतां निगोद जीवन विचार आविउ । तिसिह इंद्रिई पूछिउँ, निगोदनु विचार रूडई प्रीछवउ | पछइ परमेश्वरि निगोदनु विचार परिपूर्ण कहिउ ॥५९॥
+ P आदर्श टिप्पण्यामेते ढोका उद्विताः श्रीवीरनिवतेर्नवलु वर्षशतेषु भशीच्या त्रिनवत्या नाऽधिकेषु इयं नाथना जाता, यद्वा पचम्या चतुर्थ्यां पर्युषणा प्रववृते, यतः-
तेनू य नवसएहि, समहकंतेहि वद्धमाणाओ । पज्जुखवणा चडत्यो, कार्ला[ग] सूरीहि तो उदिया ॥१॥ draft दिणेहि कप्पो, पंचगहाणीs कप्पठवणाय । नवसयतेणउएहिं, वोचिज्जा संघमानाए ॥२॥ सालाहणेण रना, संघाएसेण कारिओ भयवं । पजू (ज्जू) खवमा उत्थी, चाउम्मासी चउदसीए ॥३॥ व... भाखपडिकमणं, पक्खियदिवसम्म चविहो संभो । नयसयतेणउएहिं आयरए तं पमाणं तु ॥४॥ इति तीर्थोद्गारादिषु भणनात् ॥
"Aho Shrutgyanam"

Page Navigation
1 ... 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406