Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya
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कालिकाचार्यकथा |
२२७
मूत्र करी आकासि मंडलि गई । तेहे शाषी पथ्य प्रमाणनु ज्ञाय खगह, ते उज्जयनी भेली माहि पइठा । राजा गर्दभिल जीवत साहिओ | गुरु आगलि आणिओ । गुरे बोलाविमो, अरे पापिष्ट ! जे तई महासती सरस्वतीनु व्रतभंग कीओ, जे श्रीसंघ आपमानिओ, जे हुँ अवगणओ ते पाप वृक्षनुं ए अजी फूल मात्र हूउं छई, फल ते नरकांत हुसिइ । अजी कोई विणठउं नथी । प्रायश्चित्तनी आलोभण लइ, दीप्या लद्द । असई सांभलई हूंतई ऊहण चीतओ देषी देशथिओ - काढिओ । एतलई जे शाखीराय कन्हलि पहिलं गुरु रह्या हूंता, ते सम्राट मूलगु राओ कीधओ । बीजां रहई देश विहंची आपिओ | आज लगइ ते शाकान्वय कही । असी प्रतिज्ञा पूरी आपणी बहिन महासती संयमि आरोपीन आलोयण करो पडिक्कम्या हृता आपणा गच्छमाहि आव्या ॥
( २ )
एतलह अवसरि भारूअछि नगरि गुरुना भाणेज बलमित्र अनई भागमित्र । इसि नामि एक राजा एक युवराजा राज्य पाहूं । तेहे शीघ्र आपणु मुहंतओ मोकली गुरु तेडाव्या । मुहंतई गुरे शाकी राजा मोकलावी भरूभछि पुहता । बालमित्र राजा, भाणुमित्र युवराजा सहित महामहोत्सव करी पहसार कीघओ । गुरे भाणेज बलभानु इसिई नामि प्रतिरोध करी दीया दीधी। राजा भक्ति करी गुरु चओमासि राष्या । तेहे गुरे राय आगलि पुरोहित एक वार वादि करी जीतओ । ते पुरोहित राय आगलि उपाय करी गुरु ऊपर वह वहि । निंदा करइ । सानकूल अ ( उ ) पसर्ग करइ । ते राजानउं मन विप्रतारइ | जीणइ मार्गि गुरु चालई तोणइ मार्गि तुझ भक्त रहईं चालियउं न घटइ, गुरुनां परा भांजई । ए मोटी आसातना हुइ | राजा मुग्धस्वभावि कहिउं, किम कीज ? तु ईणी बाट कही नई हीडवा न दीजई | लोक तीणी वाट न होडई | वही ब्राह्मणि उपाय कहिओ - राजानू ! आपणां गुरुनई लोक साहि तिसउं विहिरावई । तम्हे कहु तु रूड | भोजन विहिरावई । सानकूलपणई नगरमाहि सगले आधाकर्म कराविओ | गुरु आपहिणी नाई । अनेषणा प्रवर्त्ताव 1 गुरे रहिवा अयोग्य जाणी ते नगर छोडी पठाणपुरि नगरि ग्या ।
( ३ )
तिहां राजा श्री शालिवाहन राज्य प्रतिपालइ | श्रावकोत्तम छह । तोणई राज गुरु आव्या जाणी गुरु साहमु ग्यओ । महामहोत्सव करी नगर माहि प्रवेश कीधओ । गुरे राजनई जणावउं -अम्हे पर्युषण पर्व ईहां करिया हीडां छां । नगरमाहि देव वांधा । राजा श्री शालिवाहन प्रमुख गुरुनी पर्युपासना भक्ति करई । क्रमिहि पर्युषणापर्व भावितं । राजा सूरीश्वर बोलाया, असारह भादवा सुदि पांचमि तणइ दिवसि इंद्रमहोत्सव शक्रयात्रा हुइ । लोकनई रूढि महोत्सव कीओ जोई जि | अन श्रीपर्युषणा महोत्सव देववंदना देवपूजा किम हुइ । एह कारण पर्युषणा पर्व छठिहूं करभो । ति चारहं गुरे कहिउँ—
अवि चलs मेरुचूला, सूरो वा उग्गमेइ पच्छिमे भाए ।
त पंचमी रयणी, पजूसत्रणा न अइकमइ ॥११॥
मेरु पर्वतनी चूलिका चलइ किवार समुद्र मर्यादा मेल्हइ । किवार सूर्य पश्चिमई जगह । तहऊए पर्युषण पर्व्व पांचमिनो रात्रि न ओलंबीइ । तभ चमोथिई कीजइ । ए वचन मानिओ । श्रीमहावीरना वचन तओ श्रीसंघनी अनुज्ञा तु जुइसिउं कहिउँ छ ।
नवसयं त्राणउँए ९९३ वर्षे जे कालिका ते बीजु० ॥
जी को तुरिमणि दत्त श्रीजु । ते श्यामाचार्य कालिकाचार्य ने निगोद |
"Aho Shrutgyanam"

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