Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya

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Page 405
________________ [३०] श्रीगुणरत्नसूरिविरचिता कालिकसूरिकथा। [ रचनासंवत् ११ शताब्दि] अंबिका पाय प्रणमेसो, कालिक कवित करेसो । धारावासनयर निरुपम, तीह पुर कुण दीमइ उपम ॥१॥ तीणइ 'पुरि धैरह सिंघ बलवंत, राज करइ जयवंत । सुरसुंदरि तस घरिणी राणी, रति मीतिरूप समाणी ॥२॥ तेह बिहु अछइ कुमार, कालिक इति सविचार । एकवार खेलि रवाडी, कुमर गयु धनवादी ॥३॥ तिहां जोतां मुनिवर दीठा, गुणाकरसूरि बईठा । कुमर आवी गुर पासि, बांदी मनह उलासि ॥४॥ देसणा गरि तव दीधी, तस काया निरमल कीधी। देव-गुर-धरम तिहां जाणी, दीक्षा ऊपरि भाव इति आणी ॥५॥ माय बाप सजन मनाची, कालिक सरसति आवी। गुरु सापि दीक्षा छेई, संयम पालइ ए ई ॥६॥ गुणाकरि विद्या सवे आपी, कालिक निज पाटि थापी । कीधा इ(अ)तिसय प्रमाण. मयण मनावई ए आण ॥७॥ पणि गुण हतु बसह देह. पिसण सयण सम नेह। सबधितण निर्धान, गणधर युगह प्रधान | छेदइ करम अपार, श्रीगुर इति सविचार । ...............गुण नवि कामई ए पार ||९॥ नवकारमंत्र आराधइ, रुषिराज निज काज साधइ । तपनिधि साहसधीर, नमइ निरंतर वीर ॥१०॥ परिचर जगि जयवंत, आवइ क्रम जीपी ररूपंत । कीधुं सफल संसार, महीयलि करइ विहार ॥११॥ गणधर ऊजेणी पहता, तिहां राउ गर्दभिक इंता । सूतउ साप जगावड, रिपु यह सती य पावइ ॥१२॥ गणइ नहीं पाप जि कोइ, छकि बलि लीइ २ लीई । भावी संघ सामंति, राउ प्रति भसिङ कांति ॥१३॥ "Aho Shrutgyanam"

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