Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya

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Page 400
________________ २२६ श्रीरामचन्द्रसूरिविरचिता दृष्टि वेधी भणा । गुरु अवधूतवेषि तिहां र[ह]ई । ते राजा शाकी मान सन्मान दिइ । महत्व प्रतिष्ठाई ते शाकी बोललं, ऊवर्घइ नही । केतले दिवसे शाखानुशाषी पातसाहिई छन्नूं गयरहई अंकबद्ध लेख मोकलिओ। जिहां गुरु छई तेह रायनइ एक छरी नामांकित अनइं कचोल एतलं आगलि मेहलउं दूतिई । ते देषी राज! कालमुहु हो। ति वारई गुरे पूरिओ तूहं जि रहई कोप छइ के अनेराइ कुणहई रहई कोप छह । राजाइ कहिउं अम्ह सरीषा छन्नूह राइ रहइं एहवओ जि कोप छइ जलधेरपि कल्लोलाचापलानि कपेरपि । शक्यन्ते यत्नतो रोद्धं, न पुनः प्रभुचेतसः ॥८॥ किवारई एकई समुद्रना कल्लोल रूपी सकीई। किवारइं एकई वानरयूँ चपलपणं रूपी सकीई । पुणि ठाकुरनूं चित्त रूंधी न सकीई । तम्हे छन्नू राय एक थामओ। मू साथिई आवओ। जिम तुम्ह रहई निर्विघ्न रूडइ स्थानकि लेई जाउं । तेहे सविहु राए मुरुनूं वचन मानिउँ । मूलगा शाखीनई कहिउँ, छन्नूं राय एकठा मिलो। सघला मिली। गुरु वचन लगइ चाल्या। सिंधुदेशमाहिं सिवनदी ऊतरी सुराष्ट्रदेशमाहिं ज्या । तिहं वर्षा हूउ । जीणइ वर्षाकालि गाउलोअण थाइ । नदी वाहला ऊतरी न सकीई । मास ४ सुरठई रह्या । वर्षा ऊतरिइ गुरे ते बोलाव्या। कहुं चालु । तेहे कहुं किहां भणी चलावओ छओ । तिवारइ गुरे कहिउँ । मालवुकदेश मणी, उज्जयनी नगरी तिहां तमारु निर्वाह इसिइ । सवितुं राजाने कहिउं, ब्रह्मारइ शंबल नथी । गुरे शासनाधिष्ठायिका देवता आराधी । तेहना सानिध्य तु चूर्णकोटि वेधी रस करी, ईटवाह पाचवी साव सुवर्णमय ईट करी, विहची आपी। पछइ मालवा भणी चाल्या। लाडदेशमाहि थई मालवानी सीमई जानइ दसुरण तिहां रह्या जण मोकली कहाव्यउं । अजी काई नथी वणठउं । गर्दभिल्लि कहिउं तु प्रमाण जु जीवता साहउं । मुडि मेलावओ करो आव्या छई। गर्दभिल्ल मंत्र आलोच करी, कटक सज करी, सामहु भाविओ। बिन्हई दल एकत्र मिल्यो । सुमट सज थया प्रधान भाट सांचर्या । संधि न हुई। विग्रह जि मेलि भाव्यु । तलि बजई सरणाईयां, पापरीई केकाण । मूरां घरि वधामणां, काइर पडइ पराण ॥९॥ पत्तिः पदाति रथिनं रथेशस्तुरङ्गसादी तुरगाधिरूढम् । गजाधिरूनो हि गजं हिनस्ति, घोरो रणः सैनिकयोः प्रवृत्तः ॥१०॥ बिहुँ दले मिले हूंते, पायक पायकस्यु झूमई । रथी रथीसुं, असवार असवारसुं, घोडा घोडामुं, हाथी हाथीसुं । एहवइ घोर रौद्र संग्रामि हूंतइ जेत्रश्री लहि वही सुभट सूरनां अंग ओल्हस्यां । कायर कांपवा लागा। पापतणइ प्रमाणि गर्दभिल राय सैन्य मचकोडिओ । ऊजेणीना गढमाहि जई रोध सज्ज इओ। शाकीए नगरी वीटो रह्या । सदा युध हुइ, ढोआ हुई। एकवार नगरी शून्य सी देषी तेहे शाखी राये गुरु पूछ्या, आज ए सुं कारण नगरी नओ को छतु न जाणीइं । युद्ध को न करई । ति वारई गुरे कहिउं, आज आठमि छइ । ए नृपाधम गर्दभी विद्या साधिसिह । जाप तणइ अति ए गर्दभी विद्या भंकार करती जे सांभलई, वयरी भाजइ । मुहि लोही लांखीनई भुई पडई। एह कारण कटक जोअण पाछउ ऊतारु । अनई सैन्यमाहि इता सत्तोत्तरसओ शम्दवेधी सुभट मुझ कन्हाल राषओ । तेहे तिम कीधं । गुरे तेहं सुभट रहई कहिउँ, जि वारई पेली गर्दभी विद्या भकारइ, ति वारई माहरी परि समकाल एह विधान मुख भाथानी परि भरिवउं । इसी सीषामण देई एक चित्त थई रह्या । ते विद्या प्रस्तावि शब्द करिता आवी । महोत्तरसओ चाण करी तेहन मुह तत्काल भरि । गर्दभी विधा निःप्रताप हुई। राजा प्रप्तिई कुपी मुहि पाटू मारिओ । मस्तकि मल "Aho Shrutgyanam'

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