Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya
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[२९] श्रीरामचन्द्रसूरिविरचिता कालिकाचार्यकथा।
नमः श्रीसर्वज्ञाय । उत्पत्ति-विगम-ध्रौव्यत्रिपदी व्याप्तविष्टपम् ।
महेमः श्रीमहावीरं, निरस्तजिनं जिनम् ॥१॥ श्रीमहावीर चरम तीर्थकर, सर्वपाप क्षयंकर, तेह तणा चरणकमल नमस्करी श्रीकालिकाचार्य गुरुतणउं कथानक कहिसु । जे श्रीमहावीर, उत्पत्ति विगम ध्रौव्य इसी छह जे निपदी, तेहनइ प्रमाणि व्याप्त व्यापिउं विश्व सघलउंड छन् । अनइ--
देव-गुरु-संघकज्जे, चुनिज्जा चकवहिसन्न पि ।
कुविओ मुणी महप्पा, पुलाइलद्धीइ संपन्नो ॥२॥ अनइं किवारइं एक जे पापकर्मइ जिनशासन प्रतिइं पाडूई करइ ते पालीनइ जिनशासन रहई, उन्नति करइ, मुहुत चडावई, ते आलोचना प्रतिकमण कीधई हूंतई श्रीकालिकाचार्य गुरुतणी परिई शुद्धमान हुइ । हिवई तेह गुरुतणओ दृष्टांत कहीइ छइ ।
ईणइ जि भरतक्षेत्रि धारावास इसिं नामि नगर छइ । तिहां वैरसिंह इसिं नामि राजा राज्य प्रतिपालइ । तेह तणइ सीलालंकारधारिणी मनोहारिणी प्रिया कलत्र सुरसुन्दरी इसिं नामि प्रवर्तइ । तेह बिहुं भरतार भार्या संभूत कालिक इसिं नामि कुमार छड्। सर्वगुणाधार छ । तेह कुमार तणइ निर्जितदेवांगनारूप सरस्वती इसि नामि बहिन छइ । एक वार यौवनवयि घोडा घेलाविया बाहिर वाडिं वनमाहि गिई इतई श्रीगुणाकरसूरीस्वर दीठा । पंचांग भूमीतलि ऊतरी, प्रणमी, नमस्करी पांचसई राजपुत्र सुभट, मित्रस्युं बहठओ । गुरे धर्मदेशना आरंभी । किसी ते--
विघल्लतानेकपकर्णताललीलायितं चीक्ष्य नरेन्द्रलक्ष्मीः ।
युष्मादृशाः किं च पतन्ति कूपे, भवस्वरूपे मुविवेकिनोऽपि ॥३॥ वीजना झबकारा सरीषउं, हाथीयाना कर्ण सरीपउं, राज्यलक्ष्मी तणउं स्वरूप आणी, तह्म सरीषा भव्य जीव छई जे ते भवि कूपि किम पडई । सुविवेकीया ते जे संसार तृणक्त् छांडी संयम राज्य आदरई । इस्यु सांभली प्रतिबुद्ध हुओ। माता पिता मोकलावी व्रत ग्रहण कीधउँ । पांचसइ क्षत्रीयस्युं सरस्वती बहिनस्युं दीक्षा लीधी। गीतार्थ हुओ। गुरे आपणा गच्छतणओ भार तेहमांहि आरोपिओ। तेह जि पांचसई मुनिस्युं पृथ्वीइं व्याहार क्रम करई । ग्रामि एक राईय, नगरे पंच राईयं । ग्रामि एक रात्रि नगरि पंच रात्रि ।
इम विहार करता हूतां श्रीकालिकाचार्य गुरु मालवकदेशमाहि उज्जयनी नगरीई पुहुता । तिहां गर्दभिल्ल राजा राज्य प्रतिपालइ । एक वार खाडी जातई हुंतई बहिभूमि जातां सरस्वती इसि नामि साध्वी तपोधना परिवारपरिवृत इतां राजा गर्दभिलाई दीठी । तिहां चित्त परावर्त इओ। कामात लेवा मनि धरी । यतः
'Aho Shrutgyanam'

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