Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya

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Page 402
________________ श्रीरामचन्द्रसूरिविरचिता नवसई तेणऊएहि, समयतेहि वद्धमाणाओ । पज्जोसवणचउत्थी, कालगसूरीहिंतो ठविया ॥१२॥ श्रीमहावीरना निर्माण तु नवसई त्र्याणू वरिसे ग्ये हते पर्युषण पर्व्व श्रीकालिकाचार्य गुरु पंचमी हूंतूं चतुर्थीई आणिसिहं । इस्युं रायनु अनुग्रह कीघओ । अनइ नंदीश्वरनु तप करती राज्ञी तेहनुं पार हुइ । अनइ साधु महात्मा रहई श्रीकल्प प्रत्याख्याननूं ओत्तरवारणउं हुइ । एह कारण चतुर्थी पर्युषण पर्व कौजइ । २२८ तत्रा चातुव (f) र्षे यत्, पूज्यन्ते साधवो जनैः । तत्र देशे मवृत्तस्तु, साधुपूजालयोत्सवः ॥ १३ ॥ अजी आज लगइ तिहां पयाणपुरि देशमाहि भादवा सुदि पडिवे नंद (नई) दिनि साधुपूजालयोत्सव हुइ || ४ ) । एतलई कालना वशेष तु शिष्य प्रमादी जाणी कहिउँ न करई । मनमाहि श्रीकालिकाचार्य चतवई । तेहं शिष्य रहई सीषामणा देवा शिज्जातर श्रावक तेडी तेह आगलि सलीह बात कही । जु शिष्य प्रमादी, रात्रि दीह सूता रहई । शास्त्राभ्यास न करई, कियाकलाप सामाचारी तेहनइ विषइ प्रमाद पर हुआ । तओ एह रहईं किसी शिष्या (क्षा) दीजइ । असे शिष्यनु शिष्य सुवर्णपुरि श्रीसागरचंद्रसूरि इसि नामिई छह, तिहां जईह छइ । जि चारई तुम्ह कन्हलि ture धणु आगर करो पूछई, गाढा हाकली चोयण करीतु । अम्ह रहई श्री सागरचंद्रसूरि कन्हइ ग्या कहिज्यो । शय्यातर रहई जणावीनई रात्रि पाहिली शिष्य सूता जि भुंकी गुरु श्रीकालिकाचार्य एकला जि वाल्या | सुवर्णपुरि नगरि पुहुता । तेहे गुरे अणओलख्या भणी सामा हि न ओलख्या वृद्ध को तपोधन एकला आव्यु छइ । व्याख्यानह नम कउं । साहमी प्रतिपत्ति न कीश्री । तीणइ प्रति श( शिष्य श्री सागरचंद्र पूछउं । हे वडा तपोधन 1 माह व्याख्यान किस्युं ? - कहिनई तई आगई असउं व्याख्यान कही कन्हि सांभलिउँ हूतउँ कि ना ? | गुरु तु कही नई वषोई नही पण मनि चीतवई - शास्त्रलगह अहंकार ऊपजइ । जु भव्य ओत्तम डाहीआर सज्जनई भणिउं हूंतउं अहंकार फेडइ | तेह जि शास्त्र दुर्जन पापी मूर्ष अज्ञान रहई साहम् अहंकार प्रमाद नीपजावइ । जिम श्रीसूर्य देवी घूक घूषा रहई । साहमूं अंधारु थाइ । जे सूर्य ऊहिं देवनां द्वार ऊघडई । गाइना गाला छुटई, स्वैरिणी स्वेच्छाचार टलई, सह कार्यक ( क )म करई । जगचक्षु श्रीसूर्य अंधारां जाई । घूघा रहई सामहूं अंधार थाइ | शाख श्रीसूर्य समान छ । जे अहंकार करई ते घूक समान जाणिवा । पणि मई कालिकाचार्यई वषाणिव जि भलर्भों ( 3 ) वाण करु छउ । ति वारई सागरवंदि कहिउं मुह कन्हई कोई पूछभो । गुरि श्रीकालिकाचार्यि पूछिउँ-कहु संसारमाहि रूड ं सूं छइ । सागरचंद्र सूरि कहिउं । धर्म्म टाली अभ्य(नि) त्य जि देषी । सहइ कोई धर्म उत्तम छ। पितां (ता) मातां (सा) कलत्र मित्र स्वामी राजां भाइए पुत्रे देवताए मंत्रे जंत्रे ऊषधे जे काज न सीशङ्कं ते धर्मि हेलामात्रि सीझइं । दुःख फेडइ । मृत्यु मरणि सार्थि आवइ । ब (बुद्धिवंते धर्म जि करिवउँ । गुरे कहउँ धर्म किम हुई । अहंकारि हुइ । विश्व (वृद्ध) वाकि सांभली रीसाणओ सागरचंद्र । वृद्धत्त सुं जाणइ । संपूर्ण शास्त्र सिद्धांत न जाण, इम वाद करतां ॥ पाछलि प्रमादी शिषे (ष्ये) शिज्जातर श्रावक पूछिओ तेतलई श्रावक बोलिओ, तम्हे गुरु श्रीपूज्यतणी आण लोपी अन नसंप (क) हुआ । मश कन्हइ सिउं पूछओ । तम्हे गुरे छांड्या । माहरी दृष्टि आगलथा परहा जाओ । असउं आकरुं वचन राज्जातरि कहउं । ति वारई तेहे शिषे क्षमावी, अपार पश्चाता (ता ) प धरी शिज्जातर प्रति वली पूछ | एक वार दया करी अहं कहु गुरु किहां पुहता । शिज्जातरि ते क्षमा वली जाणो ओरत्या जाणी कहिउं । गुरु "Aho Shrutgyanam"

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