Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya

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Page 399
________________ २२६ कालिकाचार्यकथा । न पश्यति दिवोलूका, काको नक्तं न पश्यति । कामान्यः कोऽपि पापीयान् , दिवा नक्तं न पश्यति ॥४॥ घूयड दीहिं न देषई । काग रात्रिं न देषई। पुणि कामांध पापी दीहिं अनइं रात्रि न देषइं । एह कारणतमओ संघ इतई मंतेउरमांहि ते सती सरस्वती भगवती राषी । हा बांधव । हा कालिकाचार्य ! हा तात वैरसिंह !, हा माता सुरसुंदरि !, हा गुरु गुणाकारा सूरि ! माहरउं चारित्रस्न गर्दभिल्लि नृपाधमि लीजतउं राषओ रापओ। सूरीस्वरे तथा श्रीसंघिई, मंत्रीश्वरे, प्रधान पुरुमे कहूं, तूई न मेल्हह । इसिउं कहिउं छह-- यत्रास्ति राजा स्वयमेव चौरो, भाण्डिवहो पत्र पुरोहितश्च वनं भजचं ननु नागरा भो !, यतः भरण्याद् भयमत्र जातम् ।।५।। जिहां राजा स्वयमेव-आपहणीइ चोरी करइ । जिहां पुरोहित भंड विद्या करह, अहो लोको 1 तो वन सेविओ। जेह तउं पोपउं जोईइ, तेह इंतओ भय हुइ । इमइ सांभलिई इतउं पुणि न मेलई । संघ समु(म)क्ष्य गुरि श्रीकालिकाचाई इसी प्रतिज्ञा कौधी जे, गर्दभिलिई श्रीसंघर्नु कहुं नथी कोधउं अनइ महासतीनई अवज्ञाभाव फीधभो छई। जिनशासनमाहि काई नथी लेषव, तो मुंह कालकाचार्य- कोई नथी मान, तओ पणि तओ प्रमाण जु एह गर्दभिल्ल रहई राज्य थकु उन्मूली नई नांपउँ, चोटी साही मांथा पावती फेरी राज्य थकु काढउं तु जाणिज्यो। जु ए बलवत्तर तु किसुं, एहनइ घणउं सेनि तु किसउ !, एड्नइ गर्दभी विद्यार्नु पराण तु किसउ !, इसां वचन बोलतओ उन्मत्तनी परि भ्रमइ । एहनइ गद, पराण, द्रव्य पराण तु किस ! असउं प्रिथलपणू करतु बोलतु हीडइ । साहित्यस्य वचन बोलतु जाणी लोके राजा गर्दभिल्ल चित्तमाहि निंदिओ। ए राजानइ धिग पडओ, जीणई पापी राजाए गुरु इसी ददिदिशा पाडिओ। पतलई वली महंते राय वीनविओ. पसाओ करि ए साध्वी व्रतस्था महासती मेल्हि रीसाविइ हुंतई तेह मुहतां रहई कहिउं तुझे आपणा मा-बाप रहई जई सीषामण दिओ। इसिउँ रायनउँ वचन साभली ते प्रधान पुरुष मौनि थई रह्या । इसउं स्वरूप सांभली श्रीकालिकाचार्य नगरतमओ वाहिरि नीसर्या । गच्छ गीतार्थ महातमानई मालवी, अवधूतनु वेस करी, ओघओ मुहपती गोपवीनइं पश्चिम दिशि सिंधु नदीनइ पारि शककूल इसिं नामि स्थानकि ग्या । तिहाँ नगरनह परिसरि शाकी कुमर गेडी दडे रमता देषी उभा रह्या । तेह रहई रमता दडओ अवह कूपमाहि पडिओ । सह सचिंत थई रहिउ । गुरे तेहजिना बाण धनुष लेई दृष्टि वेधी दिषाडते इते ते दडओ एक एकनो पूषई वाण संधान फरी ईणी रीतिई दडु काढिउ । सवे शाको कुमार रलीयायत इआ । इसिउं कहिउं छई मानमुल्लसति यत्पदे पदे, संपदे भवति चाक्यडम्बरः । धीमतामभिमतार्थसिद्धये, यदि देशगमना स उत्सवः ॥६॥ जे बुधिवंत छई, जे विद्वांस हुइ, ते जु विदेश जाइं तो हह संपदा। जि हुइ बोलता भाषां काज सीमई, मननउं वांछउँ कार्य सीमइ । एतलई स्यु आश्चर्य सिउं संदेह काई । विद्वत्त्वं च नृपत्वं च, नैव तुल्यं कदाचन । खदेशे पूज्पते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥७॥ विद्वांसपणं अनइं राज्य पदवी सिरीषां न कहांइ काई । विद्वांस जिहां जाई तिहां कला विधानइ चमत्कारि करी मानई । इम तीणे कुमारे मानिओ, पूजिओ, सत्कारिओ। साथिइं लेई मापणा पिता रहई जणाव। चारु वाणी "Aho Shrutgyanam"

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