Book Title: Kalikacharya Kathasangraha
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Kunvarji Hirji Naliya
View full book text
________________
१६८
श्री अज्ञात सूरिविरचिता
विमुद्रसंसारसमुद्रपात, फलं भविष्यत्यपरं संदा ते ।
अद्यापि चेन्मोक्षेकरं सुधर्ममार्गे श्रयेथा न विनष्टमत्र ||४२ ||
हिवं संसाररूपीया समुद्रमाहि पडेसि [ सं] सारमाहि फिरेसि नरगि जाएसि ते फल भोगवेसि पापवृक्षनां । हवाई जु जिनधर्म वीतरागनुं पडिवजं अंनु कांई नथी विणढुं ( ) ||४२ ॥
न रोचते तस्य मुनीन्द्रवाक्यं, विमोचितो बन्धनतो गतोऽथ ।
सरखती शीलपदेकपात्रं, चारित्रमत्युज्ज्वलमाषभार ||४३||
श्री कालिकसूरिनूं वचन तेहनई न गमइ । पछइ गुरे बंधन थकु छोडाविउ विदेसि गिउ | अनह सरस्वती महासती शुद्ध शीलमर हुती आपणुं चारित्र अत्युज्ज्वल पालवा लागी ॥४३॥
यस्यावसद् वेश्मनि कालिकार्यो, राजाधिराजः स बभूव साहि: ।
देशस्य खण्डेषु च तस्थिवांसः, शेषाः नरेन्द्राः शकवंश एषः ||४४ ||
जेह साहिनइ घरि पहिलुं कालिकाचार्य रहिया ते सघलामाहि मूलगु राजा थिउ । बीजा सघलाइ देस विचीनई रहिया । तही लगइ शाके संवच्छर प्रचतिउ । शाके वंश कहवाइ ॥ ४४ ॥
श्रीकालिकाये निजगच्छमध्ये, गत्वा प्रतिक्रम्य समग्रमेतत् + |
श्री सचिते वितरत्पमोदं, गणस्य भारं स बभार सूरिः || ४५||
श्रीकालिकसूरि निज आपणा गच्छमाहि आवी श्रीसंघ मुख्य पडिकमी आलोईनइ वली भाषणा गच्छनु भार यहवा लागा ||४५॥
( २ )
भृगोः पुरे यौ बलमित्र - भानुमित्रौ गुरूणामय भागिनेयौ ।
विज्ञापनi प्रेक्ष्य तयोः प्रगल्भ, गावतुर्मासकहेतवे ते || १६ ||
इसिह समद बलमित्र अनह भानुमित्र गुरुना भाणेज तेहनई आग्रहई श्रीकालिकसूर भरूअछि चउमासान अर्थ पुहता ॥ ४६ ॥
श्रुत्वा गुरूणां सुविशुद्धधर्मानुविद्धवाक्यानि नृपः समायाम् ।
अहो ! सुधर्मो जिननायकस्य, शिरो विधुन्वन्निति तान् बभावे ॥४७॥
गुरुनु उपदेश सांभली भाणेज बलमित्र भानुमित्र सभामाहि गुरुनी प्रसंसा करई । पुरोहिति चौतविउं ए आचार्य चमा रहसि तु राजा श्रावक था सिहं । पुण तिम करउं जिम गुरु आहां रहई नही । मनि हम विमासी राय आगलि गुरुनी प्रसंसा करवा लागु ॥४७॥
निशम्य भूपस्य सुधर्मवाक्यं पुरोधसो मस्तकशूलमेति ।
जीवादिवादे गुरुभिः ॐतोऽसौ, निरुत्तरस्तेषु वहत्यसूयाम् ||४८||
१० सदेव S 1 ११ • क्षपरं S १२ नास्त्ययै श्लोकः L आदर्श | १३ ° न्द्राः गवं SP जे वहिज्जा चकवसिन्नं पि । जइ तं न करेइ मुणी अनंतसंसारीओ होई ॥१॥ साहूण चेद्रयाणं "P । • SPI 94 • र्मा विशुद्ध S १६ कृतेऽपि नि L कृतोऽपि St
"Aho Shrutgyanam"
۹۷
+ संघाईयाण
● घमध्ये वि

Page Navigation
1 ... 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406