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प्रकटीकरणमात्र है, जो साम्प्रदायिक परिभाषावद्ध कर्मविचारके अभ्यासियोंके लिये खास उपयोगी है।
प्रस्तुत पुस्तकमें छठा निबंध भगवान् पार्श्वनाथसे सम्बद्ध है और सातवां महाराजा खारवेलसे। यों तो भगवान् पार्श्वनाथ केवल जैन परम्परामें ही नहीं बल्कि सामान्य रूपसे भारतीय जनतामें सुविदित हैं । भारतमें कहीं भी जाओ-खासकर पूर्व और दक्षिणादि देशोमें जाओ- तो लोग जैन परम्पराको पार्श्वनाथके नामसे पहिचानते है । जैन तीर्थंकरों से जितनी ख्याति भगवान् पार्श्वनाथकी है उतनी जनसाधारणमें अन्य तीर्थंकरोंकी- यहां तक कि - भगवान महावीर तककी भी, नहीं है । वैदिक और पौराणिक परम्परामें जैसे राम और कृष्ण, या ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर वैसे ही जैन परम्परामें भगवान् पार्श्वनाथ । उनके नामसे विश्रुत पार्श्वनाथ पहाड-सम्मेतशिखर आदि जैसे तीर्थ भी सर्वविदित है । बनारस अगर कभी जैन परम्पराका अन्यतम केन्द्र रहा हो तो वह भी सम्भवतः भगवान् पार्श्वनाथके कारण ही । इस स्थितिमें भगवान् पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकताके बारेमें सन्देहको अवकाश नहीं है, फिर भी जो वस्तु जैनकि लिये स्वतःसिद्ध है वह जैनेतरोंके लिये-खासकर पाश्चात्य देशवासियोंके लिये-वैसी हो नहीं सकती। अत एव शुरु शुरुमें अनेक पाश्चात्य विद्वान् भगवान् महावीरसे पहिले जैन परम्पराका अस्तित्व माननेमें हिचकिचाते रहे। पर जब प्रो. याकोबीने बौद्ध और जैन ग्रन्थोंकी तुलनाके आधार पर बतलाया कि, पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति हैं तव सव लोग एक स्वरसे उस तथ्यको मानने लो । पार्श्वनाथको ऐतिहासिक सावित करनेकी सामग्री तो