Book Title: Jambudwip Part 02
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 139
________________ पृथ्वी-भ्रमण के निषेधक कुछ वैज्ञानिक कारण ले. डो. रुद्रदेव त्रिपाठी M.A.PH.D. D.LIT. दिल्ही-जयपुर भूगोल-विज्ञान के परिशीलन की प्रक्रिया विज्ञानवाद-प्रचारित भ्रमणापूर्ण धारणायें मानव-मस्तिष्क की एक अनूठी उपज है, जो प्रेस-प्लेटफार्म के बल पर मुग्धजनों के कि बहुत ही प्राचीन काल से निरन्तर चलती मानव-मास्तिष्क में ठोस सत्य के रुपमें आ रही है । परिणत हो पाई है __ इस परिशीलन की दिशा में किये गये जिनका रहस्योद्घाटन करना आज समय और किये जा रहे प्रयासों का एक विस्तृत आ गया है इतिहास है, जिसे ज्ञान और विज्ञान की दोनों नमूने के तौर पर 'पृथ्वी घूमती है' इस दृष्टियों से देखा गया है। चीज के सामने विज्ञानकी कुछ नई शोधोमें प्राचीन-महर्षि पृथ्वी को अचल ही मानते से प्रमुख शोधरुप थ्री वॉन एवन बेल्ट (तीन थे और उनकी इस धारणा के अनुरुप ही किरणोत्सगी पट्टे) की बात. पृथ्वी के पर्यायवाची नामों में 'अचला, स्थिरा, पाठकों के सामने प्रस्तुत की नारदी हैं. ध्रुवा' आदि नामों से सम्बोधित करने की पृथ्वी से उपर उठने पर वातावरण की परम्परा चलती रही। परिस्थिति वैज्ञानियों के मतव्यानुसार निम्न कुछ वर्षों विज्ञान का आश्रय ले कर प्रकार मानी जाती है अनुसन्धान की प्रवृत्ति चल पडी और उसके पृथ्वी से ७ से १८ किलोमीटर तक सहारे अनेक भौतिक-साधनों में नवीनता बादल, कुहरा, पवन आदि होते है । यहाँ आई। तक ८० प्रतिशत हवा होती है । जनजीवन के लिये सुखसुविधाओं का २० से ३० किलोमीटर तक पतली हवा आधार विज्ञान ही बन गया । तभी से विज्ञान होती है । के नाम पर विज्ञानवाद ने भी अपने चरण ३० से ८० किलोमीटर तक वातावरण बढाये और आज यह परिस्थिति है कि- ठण्डा होता जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org|

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