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"जैन और वैदिक भूगोल में जम्बूद्वीप तथा भरत क्षेत्र"
प्रो. कपूर चन्द जैन अध्यक्ष-संस्कृत विभाग
श्री कुन्द कुन्द जैन डिग्री कालिज, मु. खतौली, (मुजफ्फरनगर) (उ. प्र.)
पृथ्वी, उसकी उत्पत्ति, ग्रह-नक्षत्र, सूर्य- भारतीय-दर्शनों की श्रमण और वैदिक चन्द्र-विमान पर्वत, द्वीप, समुद्र, नदियां, देश, दोनों परम्पराओं ने इस विषय में पर्याप्त जनपद, नगर, ग्राम ये सभी भूगोल के विषय गवेषणा की है।
श्रमण-परम्परा की जैन और बौद्ध दोनों 'प्रत्यक्ष होने से पृथ्वी के एक भाग के धाराओं में पर्याप्त साहित्य इस संबंध में संबंध में तो प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाते है। मिलता है। किन्तु स्वर्ग-नरक, सूर्य-चन्द्र आदि के संबंध जैन परम्परा में प्रथमानुयोग ((१) पौरामें अनुमान प्रमाण ही मुख्य है । अनुमान ।
न .णिक तथा कथात्मक साहित्य) के ग्रन्थों के में भी योगियों, महापुरुषों या तीर्थंकरों द्वारा
साथ साथ करणानुयोग (२) के अनेक ग्रन्थ किया गया आत्म-साक्षात्कार ही मुख्य है ।।
___ इस विषय पर प्रकाश डालने वाले है. ___ यद्यपि आज के विज्ञान, (जो अपने को . उन्नति के चरम-शिखर पर मानता है)
बसुबन्धु कृत 'अभिधर्मकोष' बौद्ध परम्परा अपनी गवेषणा से अनेक भौगोलिक-गुत्थियों
. का आदर्श है। को सुलझाने का प्रयास कर रहा है, पर वह वैदिक-परम्परा में पौराणिक साहित्य के अणुमात्र है, ऐसी दशा में योगियों द्वारा किया साथ अनेक ज्योतिष आदि के ग्रन्थ इस गया प्रत्यक्ष ही इस संबंध में प्रमाण माना विषय में उपलब्ध है ।। जाना चाहिए ।
सर्वप्रथम सृष्टि के उत्पत्ति को लें। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और नाश इन जैन परम्परा के अनुसार सृष्टि जिसे प्रश्नों पर सभी धर्मों ने अपनी अपनी दृष्टि लोक शब्द से अभिहित किया गया है, अनादि से विचार किया है.
है । इसे न किसी ने बनाया है और न
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