Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 9
________________ मेरा निवेदन सम्माननीय पाठक गरम ! आज आपकी सेवा मे यह जैनागम सूक्ति सुधा प्रथम भाग प्रस्तुत करते अपूर्व आनद अनुभव हो रहा है । पुस्तक का प्रमुख और सर्वोत्तम ध्येय जनता का नैतिक धरातल ऊँचा उठाना और वास्तविक आत्म-शाति का अनुभव कराना है । जिससे कि चारित्र शीलता के साथ जन साधारण की सेवा-प्रवृत्ति का विकास हो । और जैन दर्शन की मान्यता है कि विना चारित्र शीलता के जनता की सेवा वास्तविक अर्थ में नही हो सकती है । चारित्र-शीलता, अनुशासन-प्रियता, और सेवा-वृत्ति ही किसी भी राष्ट्र की स्थायी नाव होती है, जिसके आधार पर ही राष्ट्र की सभ्यता, सस्कृति, शाति और समुन्नति का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है । नैतिक धरातल के अभाव मे राष्ट्र का पतन ही होता है , उन्नति नहा हो सकती । आज भारतवर्ष का जो नाना"विध आर्थिक, सामाजिक और अन्य कठिनाइयो का गभीर अनुभव हो रहा है, उसके मूल में नैतिकता का और सात्विकता का अभाव ही कारण है। जैन धर्म निवृत्ति का जो उपदेश देता है, उसका तात्पर्य जीवन में निष्क्रियता -- या अकर्मण्यता से नहा है, बल्कि अनासक्तता और सात्विकता पूर्ण नैतिकता. वाला जीवन व्यतीत करते हुए जनता की सर्व-विधि सेवा करना जैन धर्म के अनुसार सच्ची प्रवृत्ति है, और ऐसी प्रवृत्ति ही आत्म-शाति प्रदान कर -सकती है। ऐसी प्रवृत्ति वाले के लिए कहा गया है कि:

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