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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा स्वरूपी हिंसा बताया गया है । जैसे आप कबूतर को दाना चुगाते हो, तब न चाहते हुए भी हिंसा हो जाती है इसी प्रकार ।
भगवान तीर्थंकरो के समवसरण में भी देवों द्वारा पुष्पों की वर्षा होती है । यदि इसमें हिंसा का पाप होता तो भगवान देवों को जरुर मना करते, जैसे काम-भोग की मना ही करते हैं इसी प्रकार । पर भगवान मना ही नहीं करते है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि इस प्रकार का भक्तिभाव उचित है। ____ भगवानश्री तीर्थंकर देव के जन्म के समय, समकिती सौधर्मेन्द्र भगवान् को मेरुपर्वत पर ले जाता है, और अच्युतेन्द्र, ईशानेन्द्र आदि सभी इन्द्र हजारों घड़ो पानी से अभिषेक करते हैं । इन्द्रों द्वारा हर्षोल्लास पूर्वक ठाठ बाठ से किया जाता जन्म अभिषेक क्या पाप है ? क्या हिंसा है ? क्या अनुचित है ? क्या यह मिथ्यात्व की करणी है ?
ऐसे अभिषेक का वर्णन श्री जैनागमों में गणधर भगवंतो ने किया है, क्या यह मिथ्यात्व है ? यदि यह हिंसा होती तो क्या गणधर भगवंत इसका वर्णन करते ? स्थानकवासी संत स्वयं की आलू-प्याज-मूली-गाजरलहसून जैसे अनंतकाय जीव को खाने की अशुभ करणी के लिए तो कुछ बोलते नहीं है और जिन अभिषेक जैसी निर्मल-पवित्र-निष्पाप आगमिक करणी को मिथ्यात्व - हिंसा कहना यह उलटी गंगा बहाने जैसी मूर्खता
सूर्याभ आदि देव सम्यग्द्दष्टि देव है, वे कभी जिनेश्वर देव को छोडकर रागी-द्वेषी कामदेव की पूजा नहीं करते । सूर्याभ देव द्वारा देवलोक स्थित शाश्वत जिनचैत्य-सिद्धायतन में विराजमान जिनप्रतिमाओं की पूजा का वर्णन श्री रायपसेणी आगम सूत्र में आता है।
जैनागमों मे जगह-जगह जिनचैत्य, शाश्वत जिनपडिमा, जिनघर, चैत्यायतन, सिद्धायतन, चैत्यवंदन आदि शब्दों का प्रयोग जिनमंदिर व जिनपूजा के लिए प्रयुक्त हुआ दिखाई देता है ।
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