Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 16
________________ [१०] चलते-चलते यही भावना करता है कि भव-भव में मुझे ऐसा ही पुण्य योग मिलता रहे। सारांश यह है कि यात्री अपना सारा समय धर्मपुरुषार्थ की साधना में ही लगाता है। वह तीर्थस्थान पर रहते हुए अपने मन में बुरी भावना उठने ही नहीं देता, जिससे वह कोई निन्दनीय कार्य कर सके । ऐसे पवित्र स्थान पर यात्रीगण ऐसी प्रतिज्ञाएं बड़े हर्ष से लेते हैं जिनको अन्यत्र वे शायद ही स्वीकार करते । यह सब तीर्थं का महात्म्य है। ऐसे पवित्र स्थान को किसी भी तरह अपवित्र न बनाना ही उत्तम है। शौचादि क्रियाएँ भी बाह्य शुचिता का ध्यान रखकर करनी चाहिए, क्योंकि ध्यानादि धर्म क्रियाओं के साधन करने योग्य स्थान शान्तिमय एवं पवित्र ही होना चाहिए।+ प्रश्नावली १] तीर्थ क्षेत्र का महत्व लिखो। २] धार्मिक एवं आत्मा की उन्नति के लिए तीर्थ यात्रा क्यों प्रावश्यक है? ३] सच्ची तीर्थ यात्रा और तीर्थवन्दन किस प्रकार होती है ? ४] किस प्रकार की हुई तीर्थयात्रा निष्फल और पाप कर्मबन्ध का कारण होती है। + जनसंसर्ग वाक चित् परिस्पन्द मनो भ्रमा। उत्तरोक्षर बीजानि ज्ञानिजन मतस्त्जेत् ॥ -ज्ञानार्णव तीर्थ प्रबन्धकों को स्वयं ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए जिससे. बाहरी गंदगी न फैलने पावे। अधिक संख्या में शौचगृह बनाने चाहिये और उनकी सफाई के लिए एक से अधिक भंगी रखने चाहिये । उनमें फिनाइल डलवाकर रोज धुलवाना चाहिये।

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