Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 60
________________ [ ५६ ] कर रहा है - उसकी शान्तिमुद्रा भुवन मोहिनी है ! उस शिल्पी को धन्य है जिसने शिल्पकला के परमोत्कर्ष का ऐसा सफल और सुन्दर नमूना जनता के समक्ष रक्खा है । हुबली प्रथम कामदेव थे। कहते हैं कि 'गोम्मट' शब्द उसी शब्द का द्योतक है। इसीलिये वह गोम्मटेश्वर कहलाते हैं । उनका अभिषेकोत्सव १२ वर्षो में एक बार होता है। इस मूर्ति के चहुँ ओर प्राकार में छोटी-छोटी देवकुलिकायें हैं, जिनमें तीर्थङ्कर भ० की मूर्तियां विराजमान हैं । चंद्रगिरि पर्वत इन्द्रगिरि से छोटा है, इसीलिए कनड़ी में उसे चिक्कवे कहते हैं । वह आसपास के मैदान से १७५ फीट ऊँचा है। संस्कृत भाषा के प्राचीन लेखों में इसे 'कटवप्र' कहा है। इस प्राकार के भीतर यहाँ पर कई सुन्दर जिन मंदिर हैं। एक देवालय प्राकार के बाहर है । प्रायः सब ही मंदिर द्राविड़ - शिल्पकला की शैली के बने हैं। सबसे प्राचीन मंदिर आठवीं शताब्दी का बताया जाता है। पहले ही पर्वत पर चढ़ते हुए भद्रबाहुस्वामी की गुफा मिलती हैं, जिसमें उनमें उनके चरणचिन्ह विद्यमान हैं। भद्रबाहुगुफा से ऊपर पहाड़ की चोटी पर भी मुनियों के चरणचिन्ह हैं । उनकी वंदना करके यात्री दक्षिणद्वार से प्राकार में प्रवेश करता है । घुमते ही उसे एक सुन्दरकाय मानस्तम्भ मिलता है, जिसे 'कुगे ब्रह्मदेव ' स्तम्भ कहते हैं । यह यह बहुत ऊँचा है और इसके सिरे पर ब्रह्मदेव की मूर्ति है। गंगवंशी राजा मारसिंह द्वितीय का स्मारकरूप एक लेख भी इस पर खुदा हुआ हैं । इसी स्तम्भ के पास कई प्राचीन शिलालेख चट्टान पर खुदे हुये हैं । नं० ३१ वाला शिलालेख करीब ६५०ई० का है और स्पष्ट बताता है कि 'भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दो महान मुनि हुये जिनकी कृपादृष्टि से जैनमत उन्नत दशा को प्राप्त हुआ ।'

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