Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 49
________________ [ ४५] मैकेंजी सा० ने अपनी आँखों से यह हृदय देखा था, पर्याप्त यात्रियों के इकठ्ठ होनेपरराजा करवसूल करके दर्शन कराता था जो कुछ भेट बढ़ती, वह सब राजा ले लेता था। पार्श्वनाथ की टोंक वाले मंदिर में दिगम्बर जैन प्रतिमा ही प्राचीनकाल से रही है। "image of Parsvanath to represent the saint sitt. ing paked in the attitude of medittation," H. H. Risley, "Statistical Actt. of Bengal XVI, 207 ff अब दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों के जैनी इस तीर्थ को पूजते और मानते हैं। उपरली कोठी से ही पर्वत वंदना का मार्ग प्रारम्भ होता है। मार्ग में लंगड़े-लूले अपाहिज मिलते हैं, जिनको देने के लिए पैसे साथ में ले लेना चाहिए। वंदना प्रातः ३ बजे से प्रारम्भ करनी चाहिए। दो मील चढ़ाई चढ़ने पर गंधर्वनाला पड़ता है। फिर एक मील आगे आगे चढ़ने पर दो मार्ग हो जाते हैं। बाई तरफ का मार्ग पकड़ना चाहिए, क्योंकि वही सीतानाला होकर गौतमस्वामी की टोंक को गया है। दूसरा रास्ता पार्श्वनाथ जी की टोंक से आता है। सीतानाला में पूजा सामग्री धो लेना चाहिए यहाँ से एक मील तक पक्की सीड़ियाँ हैं फिर एक मील कच्ची सड़क है। कुल ६ मील की चढ़ाई है। पहले गौतमस्वामी की टोंक की वंदना करके बांये हाथ की तरफ वंदना करने जावे । दसवीं श्री चन्द्रप्रभु जी की टोंक बहुत ऊँची हैं। श्री अभिनन्दन नाथ जी की टोंक से सर कर तलहटी में जल मंदिर में जाते हैं और फिर गौतमस्वामी की टोंक पर पहुँच कर पश्चिम दिशा की पोर वंदना करनी चाहिए । अन्त में भ० पार्श्वनाथ की स्वर्णभद्र टोंक पर पहुंच जावे। यह टोंक सबसे ऊँची है और यहां का प्राकृतिक दृश्य बड़ा सुहावना है। वहाँ पहुंचते ही यात्री अपनी थकावट भूल जाता है और जिनेन्द्र पार्श्व की चरण वंदना करते

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