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जैन सिद्धांत साक्षात् धर्म विज्ञान है, उसमें अंधेरे में निशाना लगाने का उद्योग कहीं नहीं है। वह साक्षात् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थङ्कारों की देन हैं इसलिए उनमें पद-पद पर वैज्ञानिक निरूपण हुश्रा मिलता है। हर कोई जानता है जिसने किसी मनुष्य को देखा नहीं वह उसको पहचान नहीं सकता। मोक्ष मार्ग के पर्यटक का ध्येय परमात्म स्वरूप प्राप्त करना होता है । तीर्थङ्कर भगवान उस परमात्म स्वरूप के प्रत्यक्ष आदर्श जीवन्मुक्त परमात्मा होते हैं। अतएव उनके दर्शन करना एक मुमुक्षु के लिए आदेय है, उनके दर्शन उसे परमात्म-दर्शन कराने में कारण भूत होते हैं । इस काल में उनके प्रत्यक्ष दर्शन सुलभ नहीं हैं। इस लिए ही उनकी तदाकार स्थापना करके मूर्तियों द्वारा उनके दर्शन किये जाते है। तीर्थ स्थानों में उनकी उस ध्यान मई शांतमुद्रा को धारण की हुई मूर्तियां भक्तजनों के हृदय में सुख और शांति की पुनीत धारा बहा देती हैं । भक्त हृदय उन मूर्तियोंके सन्मुख पहुंचते ही अपने आराध्य देव का साक्षात् अनुभव करता है और गुणानुवाद गा गाकर अलभ्य प्रात्मतुष्टि पाता है। पाठशाला में बच्चे भूगोल पढ़ते हैं । उन देशों का ज्ञान नक्शेके द्वारा कराया जाता है जिनको उन्होंने देखा नहीं है। उस अतदाकार स्थान अर्थात् नक्शे के द्वारा वह उन विदेशोंका ठीक ज्ञान उपार्जन करते है। ठीक इसी तरह जिनेन्द्र की प्रतिमा भी उनका परिज्ञान कराने में कारणभूत हैं । जिन्होंने महात्मा गांधी को नहीं देखा है, वे उनके चित्र अथवा मूर्ति के दर्शन करके ही उनका परिचय पाते और श्रद्धालु होते हैं। इसीलिए जिनमन्दिरों में जिन प्रतिमाएँ होती हैं। उनके आधार से एक गृहस्थ ज्ञान-मार्ग में आगे बढ़ता है। तीर्थ स्थानों पर भी इसी लिये प्रति मनोज्ञ और दर्शनीय मूर्तियों का निर्माण किया गया है