Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 9
________________ .. किन्तु निर्वाण स्थान के साथ ही जैन धर्म में तीर्थङ्कर भगवान के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक के पवित्र स्थानों को भी तीर्थ कहा गया है वे भी पवित्र स्थान हैं । तीर्थङ्कर कर्मप्रकृति जैन कर्मसिद्धांत में एक सर्वोपरि पुण्य-प्रकृति कही गई है । जिस महानुभाव से यह पुण्यप्रकृति बंध को प्राप्त होती हैं अन्य सभी पुण्यप्रकृ. तियां उसकी अनुसारिणी हो जाती है। यही कारण है कि भावी तीर्थङ्कर के माता के गर्भ में आने के पहले ही वह पुण्य प्रकृति अपना सुखद प्रभाव प्रकट करती है । और गर्भ में आने से ६ माह पूर्व से और गर्भावस्था के नौ माह तक इस प्रकार कुल १५ महीने तक रत्न और स्वर्ण वृष्टि होती है। उनका गर्भावतरण और जन्म स्वयं माता-पिता एवं अन्य जनों के लिए सुखकारी होता है। उस पर जिस समय तीर्थङ्कर भगवान् तपस्वी बनने के लिए पुरुषार्थी होते हैं, उस समय के प्रभाव का चित्रण शब्दों में करना दुष्कर है। वह महान अनुष्ठान है - संसार में सर्वतोभद्र है। उस समय कर्मवीर से धर्मवीर ही नहीं बल्कि वह धर्म चक्रवर्ती की प्रतिज्ञा करते हैं। उनके द्वारा महान लोकोपकार होने का पुण्य योग इसी समय से घटित होता है । अब भला बताइये, उनका तपोवन क्यों न पतितपावन हो । उनके दर्शन करने से क्यों न धर्म मार्ग का पर्यटक बनने का उत्साह जागृत हो ? उस पर केवल ज्ञान-कल्याण-महिमा की सीमा असीम है। इसी अवसर पर तीर्थङ्करत्व का पूर्ण प्रकाश होता है। इसी समय तीर्थङ्कर भगवान को धर्म चक्रवर्तित्व प्राप्त होता है। वह ज्ञानपुञ्ज रूप सहस्र सूर्य प्रकाश को भी अपने दिव्य प्रात्मप्रकाश से लज्जित करते हैं। खास बात इस कल्याणक की है कि यही वह स्वर्ण घड़ी है जिसमें लोकोपकार के बहाने से तीर्थङ्कर भगवान द्वारा धर्म चक्रप्रवर्तन होता है। यही वह पुण्यस्थान हैं, जहां जीव मात्र को सुखकारी धर्मदेशना कर्णगोचर होती है। और यहीं से

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