Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 8
________________ [ २ ] १ me kW - भY.44 2. A. ९ मा होते हैं। जैन धर्म जीवमात्र को परमार्थ सिद्धि की उपदेश देता है; क्योंकि प्रत्येक जीव सुख चाहता है। के प्रलोभनों में नहीं है ; वह आत्मा का गुण है । जो मनु की छाया को पकड़ रखने का उद्योग करता है उसे है पड़ता है। छाया का पीछा करने से वह हाथ नहीं प्रा. प्रति उदासीन हो जाइए, वह स्वत: आपके पीछे-पी अतएव जो मनुष्य महान् बनने के इच्छुक हैं उन्हें त्यागअभ्यास करना कार्यकारी है । अर्थं और काम पुरुषार्थो व धर्म पुरुषार्थ पर ही निर्भर है इसलिए अन्य कार्यों के वन्दना भी धर्माराधना में मुख्य कारण कहा गया है। व वह विशेष स्थान है जहां पर किसी साधक ने साधना : सिद्धि को प्राप्त किया है। वह स्वयं तारण-तरण हुआ क्षेत्र को भी अपनी भव-तारण शक्ति से संस्कारित क धर्म मार्ग के महान् प्रयोग उस क्षेत्र में किये जाते हैंतिल-तुषमात्र परिग्रह का त्याग करके मोक्षपुरुषार्थ के स हैं, वे वहां पर आसन माड़कर तपश्चरण, ज्ञान और अभ्यास करते हैं. अन्त में कर्म-शत्रुओं का और द्वेषा करके परमार्थ को प्राप्त करते हैं। यहीं से वह मुक्त है लिए ही निर्वाण-स्थान परम पूज्य हैं । + +'कल्पानिर्वाण कल्याग मन्वेत्यामरनायकाः । गंधादिभिः समभ्यर्च्य तत्क्षेत्रमपवित्रयन् ।।६३।।। --उत्त अर्थ :-निर्वाण कल्याण का उत्सव मनाने के लि देव स्वर्ग से उसी समय आये और गंध अक्षत आदि । पूजा करके उन्होंने उसे पवित्र बनाया। अतः निर्वाण पूज्य हैं। १३ पा १४ तीर

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