Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 6
________________ में लोक और अलोक की व्यवस्था युक्तिपूर्वक कही गई है। जहॉतक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है वहाँ ही तक लोक है, उसके आगे अलोक है । अलोक में आकाश के अतिरिक्त कुछ पदार्थ नहीं है। इसलिये मोक्षगामी की स्थिति* लोक के अन्त में बतलाई गई है। क्योकि पूर्वोक्त दोनों पदार्थ, लोक के आगे नहीं हैं इसीलिये अलोक में किसी की गति भी नहीं है । अत एव लोक के अन्त में ही जीव स्थिर रहता है । यदि ऐसा नहीं मानें तो कर्ममुक्त जीव की ऊर्ध्वगति होनेसे कहीं भी विश्राम न हो, बल्कि वरावर ऊपर चलाही जाय; इसीलिये जो लोग दो पदार्थोंको नहीं मानते, वे मोक्ष के स्थान की व्याख्या में संदिग्ध रहते है और स्वर्ग के तुल्य नाशमान पदार्थ को मोक्ष मानते हैं। यदि पूर्वोक्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय दोनों पदार्थों को मानलें तो जरा भी लोक की व्यवस्था में उन्हें हानि न पहुँचे । अधर्मास्तिकाय के भी स्कन्ध, देश, प्रदेश ये भेद माने गये हैं। * लोक प्रकाश के पृष्ट ५७ में लिखा है यावन्मानं नरक्षेनं तावन्मानं शिवास्पदम् । यो यत्र म्रियते तत्रैवोद्ध्वं गत्वा स सिध्यति ।।८।। उत्पत्त्योद्ध्वं समग्रेण्या लोकान्तस्तैरलडकृतः।

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