________________
(४३) जैनतत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में हमको एक बात याद आती है कि जैसे आज कल पदार्थविज्ञानवादी लोग साइन्स [पदार्थविज्ञानविद्या] से सूक्ष्मदर्शक [दूरवीन आदि] यन्त्रादि द्वारा नये २ आविष्कार करके जनसमाजको चकित करते हैं, वैसेही अतीन्द्रिय पदार्थ के विवेचक आज से हजारों वर्ष के पहिले विना किसी यन्त्रादि साधन के हमारे शास्त्रकार जल और मक्खन तथा पौधे आदि में जीव की सत्ता यता गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि हमारे शास्त्रीय विषय, तत्वज्ञान से भरपूर हैं; कमी इतनी ही है कि हमारा प्रमाद [आलस्य] ही हमको हर एक रीति से आगे उच्चश्रेणीपर बढ़ने के लिये अटकाये हुए है।
अन्त में एसी प्रार्थनापूर्वक हम अपने व्याख्यान की समाप्ति करते हैं कि
'न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु। यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीरप्रभमाश्रिता स्मः ॥ १॥
॥इति॥