Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 43
________________ स्थिर रख सके हैं । इस विषय की एतिहासिक प्रमाणे इतिहास में बहुत प्रामाणिक रीति से दी गई हैं, परन्तु उसकी विवेचना करके हम आपलोगों का अब धैर्य नहीं हटायेगें ॥ अब मैं स्याद्वाद का दिग्दर्शन मात्र कराना चाहता हूँ: स्यावाद का अर्थ अनेकान्तवाद है । अर्थात् एक वस्तु में नित्यत्व, अनित्यत्वः सदृशत्व, विरूपत्वः सत्त्व, असत्त्व और अभिलाप्यत्व, अनभिलाप्यत्व इत्यादि अनेक विरुद्ध धर्मों का सापेक्ष स्वीकारही स्याद्वाद [अनेकान्तवाद] कहलाता है। . आकाश से लेकर दीप [दीपक] पर्यन्त समस्त पदार्थ नित्यत्वानित्यत्वादि उभय धर्म युक्त हैं । इसके विषय में अनेक युक्तियुक्त प्रमाण, स्याद्वादमञ्जरी और अनेकान्तजयपताका प्रभृति ग्रन्थों में लिखे हैं । हम को अनेक दर्शन देखनेपर यह वात विदित हुई है कि हमारे जैनशास्त्रकारही ने स्याद्वाद नहीं माना है, किन्तु अन्यदर्शनकारों ने भी प्रकारान्तर से अनेकान्तवाद को स्वीकार किया है। इसपर आप लोग थोड़ी देर ध्यान दीजिये। देखिये प्रथम साख्य को ही लीजिये उसने भी सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था को प्रधान माना है । इसलिये उसके मत मे

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