Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 41
________________ (३९) इसप्रकार सर्वत्र शान्ति रखने के कारण को विज्ञपुरुष सहज में समझ जॉयगे, तथापि कुछ स्पष्ट कर देना अयोग्य नहीं गिना जायगा। जवतक राजा को शान्ति न होगी, तव तक सामान्य राजाओं में भी शान्ति नहीं होसकती और राजा को अशान्ति होने से प्रजा को भी शान्ति नहीं होगी, यह तो स्पष्टही है । इसी प्रकार एक की अशान्ति, उत्तर उत्तर अनेक की अशान्ति का कारण होजाती है । अब इतने लोगों पर शान्ति स्थापन करने का हमलोगों के शास्त्रकारों का क्या कारण है सो तो आपलोगों की समझ में आही गया होगा। जो साधुओं के पॉच महाव्रत और श्रावक [गृहस्थ] के वारह नियम हैं, उन सव का उद्देश्य अहिंसारूप पुष्पवाटिका की रक्षा ही है, यह वात विचारकरनेपर स्पष्ट होती है । तथापि इस बात को थोड़ा स्पष्ट करदेना उचित है। देखिये ! असत्य बोलने से संमुखस्थ पुरुष को दुःख होता है और दुःख उत्पन्न होना ही हिंसा है, इसी रीति से चोरी आदि में भी जानलेना। मुनिलोग त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की रक्षा करने के उद्देश्य से ही हर एक प्रयत्न को करते है । गृहस्थ, स्थावर रक्षा में यत्नपूर्वक त्रंस की रक्षा करते है।

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