Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 40
________________ [सर्प] और गोपालदारकादि के किये हुए उपसर्ग में चरितार्थ करके, जीवों को उपदेश दिया है कि यदि तुमलोग निःसीम शान्ति की अभिलाषा रखते हो तो पूर्वोक्त चारों भावनाओं को अपने हृदय में धारण करके समस्त जीवोंपर शान्ति का सिञ्चन करो। इसी शान्ति के प्रतिपादक मन्त्रों को नित्य पाठ करने के लिये हम लोगों को भी उपदेश दिया है:"श्रीश्रमणसंघस्य शान्तिर्भवतु । श्रीजनपदाना गान्तिर्भवतु | श्रीराजाधिपाना गान्तिर्भवतु । श्रीराजसन्निवेशाना शान्तिर्भवतु॥ श्रीगौष्टिकाना शान्तिर्भवतु । श्रीपौरमुख्याणा गान्तिर्भवतु । श्रीपौरजनस्य शान्तिर्भवतु । श्रीब्रह्मौकस्य शान्तिर्भवतु ।" - - योगशास्त्र के चौथे प्रकाश में लिखा हुआ है: मा कात्किोऽपि पापानि मा च भूत्कोऽपि दुःखितः। मुच्यतां जगदप्येपा मतिमंत्री निगद्यते ॥ १२८॥ अपास्ताशेपदोपाणां वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेपु पक्षपातो यः स प्रमोटः प्रकीर्तितः ॥ ११९ ॥ दीनेष्वापु भीतेपु याचमानेषु जीवितम् । प्रतीकारपरा वुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ १२० ॥ क्रूरकर्मसु निःशवं देवतागुरुनिन्दिपु। आत्मशांसिपु योपेक्षा तत्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ।। १२१ ॥

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