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(४२) भी प्रसाद, संतोष, तथा दैन्य वगैरह भिन्न २ स्वभाववाली अनेक वस्तुओं का एक प्रधान स्वरूप स्वीकार किया गया है, इसका नाम स्यावाद छोड़कर और क्या हो सकता है ? । इसीरीति से नैयायिकों को लीजिये वे भी द्रव्यत्वादि को, अनुवृत्ति (एकाकार प्रतीति) और व्यावृत्ति - [भिन्न प्रतीति] के ज्ञान के विषय होने से, सामान्य तथा विशेष रूप मानकर अनेकान्तवाद अर्थतः स्वीकार करते हैं। बौद्धों ने भी एक चित्रपट [वस्त्र] के भीतर नील, पीत आदि नाना आकारवाले ज्ञान को स्वीकार करके भङ्गयन्तर से साद्वाद स्वीकार किया है ।।
जैनधर्म अनादि है, और सब प्रकार के दर्शनों से सर्वथा स्वतन्त्र है, यह बात पूर्वोक्त विवेचना से आप लोगों को स्पष्ट हो गई होगी।
* In conclusion let me assert iny conviction that Jainısın is an original system, quite distinct and independent from all others; and that, therefore, it is of great importance for the study of philosophical thought and religious hse in ancient India. Read in the congress of tbe History of Religions
BY H JACOBI.