Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 26
________________ ( २४ ) भेद हैं, किन्तु थोड़े समय में उनका निरूपण नहीं किया जासकता । सातवा गोत्रकर्म वह है, जिसके उदय होने से नीच, उच्च गोत्र की प्राप्ति होती है । आठवाँ अन्तराय कर्म है; जिसके उदय होने पर जीवों के दानादि करने में अन्तराय [ विघ्न ] होता है; इसके दानान्तराय १ लाभान्तराय २ भोगान्तराय ३ उपभोगान्तराय ४ वीर्यान्तराय ५ रूप से पाँच भेद हैं । राग और द्वेष की परिणति से आठ कर्मों का बन्धन होता है । हमने जिनको कर्म के नाम से कहा है, इनको अन्यदर्शनकार - अदृष्ट, प्रारब्ध, संचित, दैव, प्रकृति, तथा माया के नामों से कहते हैं । किन्तु यह बात प्रसिद्ध है कि ऐसे गहन पदार्थों की विवेचना में जैनशास्त्रकार परम उच्चकोटी को पहुँचे हैं । कर्म का पर्दा जबतक आत्मापर रहता है तबतक वह संसारी अथवा चार गति में फिरनेवाला माना जाता है और उस पर्दा के सर्वथा दूर होनेपर मोक्षगामी अथवा सिद्ध कहा जाता है | सिद्धजीव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र और अनन्तवीर्यादि से युक्त होजाता है । यहांपर यह शङ्का उठ सकती है कि ज्ञान तो अरूपी पदार्थ

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