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(२९) और मोक्ष का स्वरूप बताकर मोक्षरूप महासुन्दर महलपर चढ़ने के लिये १४ सोपान [सीढ़ी] की श्रेणी परम्परा बताई हैं । दस सीढ़ीपर्यन्त शुद्ध प्रवृत्ति की आवश्यकता है, उसके वाद निवृत्ति मार्ग की प्राप्ति कही गई है। पूर्वोक्त नव तत्त्वों के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला चौथी सीढ़ी पर है। उसको जैनशास्त्रकार सम्यग्दृष्टि जीव कहते है। उसके आगे बढ़ने पर त्यागवृत्ति अंशतः जब आती है तो वह गृहस्थ धर्मवान् श्रावक कहलाता है और उससे आगे बढ़ा हुआ सर्वांशत्यागी जैन मुनि माना जाता है। उससे भी अधिक २ गुण बढ़ने से दशवीं सीढ़ी में जानेपर समस्त क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का नाश होता है; एवं उसके आगे बढ़ा हुआ योगीन्द्र और उसके आगे केवली माना जाता है।
कवली दो प्रकार के होते हैं। एक सामान्य केवली और दूसरा तीर्थकर। इन दोनों में ज्ञानादि अन्तरंग लक्ष्मी बराबर रहने पर भी जिन्होंने जन्मान्तर में बड़े पुण्य को उपार्जन [संचय] किया हो, वही 'तीर्थकरनामकर्म रूप पुण्यसंचय होने से तीर्थङ्कर कहलाते है और वे राग, द्वेप आदि अठारह* दूपणो से रहित होते है।
. अभिधानचिन्तामणि देवाधिदेवकाण्ड के १३ में पृष्ठ में लिखा है: