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चीजें पीना और विषय का सेवन, कपाय [क्रोधादि] करना, निद्रा और विकथा [कुत्सित कथा] आदि का करना यही प्रमाद है। धर्मशास्त्र की कर्यादा से रहित बर्ताव करना अविरति कहलाती है । चार प्रकार मन की, चार प्रकार वचन की और सात प्रकार काया की शुभाशुभरूप प्रवृत्ति से, योग के पन्द्रह प्रकार माने गये हैं ।
ये पूर्वोक्त चार प्रकार के कारण से कर्म, आत्मा के साथ संबद्ध होता है। कर्मवन्धन के चारो कारण से दूर रहने के लिये अर्हनदेव ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दो मार्ग बताये हैं। उन्होंने प्रवृत्तिमार्ग को निवृत्तिमार्ग का कारण मानकर शुद्ध प्रवृत्तिमार्ग का सेवन जीव को किस प्रकार करना चाहिये इस बात को केवल ज्ञान द्वारा जानकर, जीव, अजीच, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, * बन्ध, निर्जरा * योगशास्त्र के विवरण के ११४ पृष्ठ मे ये सब लिखे है:'मनोवचनकायानां यत्स्यात् कर्म स आश्रवः' । 'सर्वेपामाश्रवाणां यो रोधहेतुः स संवरः ' । 'कर्मणां भवहेतूना जरणादिह निर्जरा' ' सकपायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् यदादत्ते स बन्धः स्यात् ' ॥
+ १ मिध्यात्व २ सास्वादन ३ मिश्र ४ अविरतिसम्यग्दृष्टि ५ देशविरति ६ प्रमत्त ७ अप्रमत्त ८ निवृत्तिवादर ९ अनिवृत्तिबादर १० सूक्ष्मसंपराय ११ प्रशान्तमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगी १४ अयोगी नामक चौदह सीढ़ी अर्थात् १४ गुणस्थानक है।