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मुक्ति के स्वरूप में भेद नहीं है । मुक्ति का स्वरूप आगम प्रमाण से सिद्ध होता है । अन्त में जैनचार्यों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि-मोक्ष के साथ उपमादेनेलायक पदार्थ न मिलने से कल्पित दृष्टान्त देकर सत्य वस्तु को सत्याभास बनाना ठीक नहीं है, क्योंकि इस संसारमें बहुतसी ऐसी वस्तुएं हैं जो देखी और अनुभव की गयी हैं लेकिन उनकी उपमा किसीके साथ नहीं दी जा सकती; तो मोक्ष यदि अनुपमेय हो तो आश्चर्य ही क्या है। इसमें दृष्टान्त यह है जैसे घृत [धी] पदार्थ को सभी-मूर्ख से लेकर पण्डित तकजानते हैं, किन्तु उसका स्वाद क्या है, यह यदि उनसे पूछा जाय तो कुछ नही बतला सकेंगे और उसके स्वाद के साथ तुलना करने के लिये कोई दृष्टान्त भी नहीं दे सकेंगे, तो फिर अरूपी और अप्रत्यक्ष पदार्थ की वातही क्या है ।
जैनदर्शन में साधुधर्म और गृहस्थधर्म दोनों मोक्ष के लिये माने गये हैं । यदि मोक्ष की सामग्री न बन सकेगी, तो पुण्य के उदय होने से देवगति प्राप्त होगी । देवताओं के चार विभाग किये गये हैं। जिनमें प्रथम भवनपति, दूसरा व्यन्तर, तीसरा ज्योतिष्क और चौथा वैमानिक बताया गया है । जैसी शुभ क्रिया होती है वैसी ही गति भी होती है। क्योंकि कहा हुआ है "या मतिः सा गतिः"।