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(३३) हर्ता है और न कोई जीवों को सुख, दुःख देनेवाला है, केवल अपने २ कर्म के अनुसार जीवमात्र सुख दुःख का अनुभव करते हैं।
बहुत से दर्शनानुयायी ईश्वरपर भार रख के 'ईश्वर की मरजी' ऐसा कहकर अपने पुरुषार्थ की अवनति करते हैं। वास्तविक में किसी का ईश्वर भला बुरा नहीं करता, क्योंकि ईश्वर में भले बुरे करने का कारण राग द्वेष नहीं है।
यहॉ ऐसी शङ्का का प्राप्त होना स्वाभाविक है कि ऐसे वीतराग के मानने से फिर फायदा ही क्या है ? । इसके उत्तर में यह कहा जाता है कि आशय की शुद्धता और अशुद्धता पर कर्मवन्ध होता है। वीतराग का ध्यान करता हुआ वीतराग होता है और रागवान् का ध्यान करते हुए रागी होता है । यद्यपि जैसे वीतराग, वीतरागपन को नहीं देता उसीतरह रागवान, रागपनको भी नहीं देता किन्तु अध्यवसाय से फल होता है । सामान्य से जीवों के अध्यवसाय छ प्रकार के माने गये है। इसका जैनदर्शन में 'लेश्या'*
लिश्यन्ते कर्मणा सह जीवा आमिर्लेश्या ।
अर्थात् जिसले कर्म के साथ जीव का वन्धन हो उसका नाम लेश्या है। कृष्णलेश्या १ नीललेश्या २ कापोतलेश्या ३ पीतलेश्या ४ पद्मलेश्या ५ शुक्ललेश्या ६ के नाम से छ. प्रकार की लेश्या हैं। इनके लक्षण येहेंः