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(२२) इसलिये मतिज्ञानादि संज्ञा को प्राप्त होता है। इस विषय में कितनेक आचार्यों का भिन्न भिन्न मत है। वे लोग कहते हैं कि जैसे ग्रह, नक्षत्र, चन्द्र वगैरह सूर्य के उदय होने के समय विद्यमान तो अवश्य रहते हैं किन्तु उनका उसके तेज के समीप प्रत्यक्ष नहीं होता, वैसेही केवलज्ञान जब उदय होता है तब मतिज्ञानादिक ढक जाते हैं, किन्तु उनकी सत्ता तो अवश्य ही रहती है। पूर्व पॉचो ज्ञानों में तारतम्य, आवरण के क्षयोपशम को लेकर माना गया है। हमलोग साक्षात् अनुभव करते है कि वादी और प्रतिवादि के संवाद में वादी पदार्थ को अच्छी तरह जानते हुए भी बहुधा उस समय भूल जाता है। इसमें आवरण के सिवाय कोई दूसरा और कारण नहीं है।
इसीरीति से दर्शनावरणीय कर्म के भी उत्तर ९ भेद है। समय के अत्यन्त कम होने से यहाँ उनके नाममात्र कहकर सन्तोष करना पड़ता है।
१ चक्षुर्दर्शनावरणीय, २ अचक्षुर्दर्शनावरणीय, ३ अवधिदर्शनावरणीय, ४ केवलदर्शनावरणीय, ५ निद्रा, ६ निद्रा