Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 22
________________ (२०) २[पूर्वोक्त दिविषय में कहे हुए नियम में और भी संक्षेप करना], पौषध ३ [एक दिन अथवा अहोरात्र [आठ पहर] साधु की तरह वृत्ति धारण करना]; अतिथि संविभाग ४ [मुनियों को दिये विना भोजन नहीं करना] ये शिक्षाबत हैं। इनका विशेष वर्णन जिज्ञासुओं को उपासकदशाङ्गसूत्र और योगशास्त्रादि ग्रन्थों में देख लेना चाहिये। ऊपर के दोनों धर्मों का सेवन कर्मक्षय करने के लिये किया जाता है। जीव या आत्मा का मूल स्वभाव, स्वच्छ निर्मल अथवा सच्चिदानन्दमय है, किन्तु कर्मरूप पौद्गलिक बोझा चढ़ने से उसका मूलस्वरूप आच्छन्न अर्थात् ढक जाता है । जिस समय पौगलिक बोझा निर्मूल हो जाता है उस समय आत्मा, परमात्मा की उच्चदशा को प्राप्त करता है और लोकान्त में जाकर स्वसंवेद्य [उसीके जानने के योग्य] सुख का अनुभव करता है। लोक और अलोक की व्यवस्था हम पहिलेही कह चुके हैं। जीव और पुद्गल का संबन्ध किस रीति से हुआ इसका उत्तर जैनशास्त्रकार अनादि बतलाते हैं । यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि यदि कर्म का जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है तो वह किस रीति से मुक्त हो सकता है, इसपर जैनशास्त्रकार यह उत्तर देते हैं कि जैसे स्वर्ण [सोना] और मृत्तिका का अनादि संवन्ध रहनेपर भी यत्नद्वारा मुक्त हो सकता है वैसेही शुभध्यानादि प्रयोग से आत्मा और कर्म का संवन्ध भी मुक्त होता है।

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