Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ (२३) निद्रा, ७ प्रचला, ८ प्रचलाप्रचला और ९ स्त्यानदि ये उनके नाम हैं *॥ - वेदनीयकर्म के शातावेदनीय, अशातावेदनीय दो भेद हैं। ___ चौथा मोहनीयकर्म $ है-जिसके, चार प्रकार के क्रोध, चार प्रकार के मान, चार प्रकार की माया और चार प्रकार के लोभ; एवं हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुर्गञ्छा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, ये सब मिल के अट्ठाईस भेद हैं। पॉचवां आयुष्ककर्म है। इसके देवायु, मनुष्यायु, तिर्यश्चायु, नरकायु के नाम से चार भेद है। छठा नामकर्म है, जिसके उदय से जीव, गति और जाति आदि पर्यायों का अनुभव करता है । इसके १०३ * लोकप्रकाश के ५८४ पृष्ठ में लिखा है सुखप्रयोधा निद्रा स्याद् सा च दुःखप्रबोधिका । निद्रानिद्रा प्रचला च स्थितस्योद्घस्थितस्य वा ॥१॥ गच्छतोऽपि जनस्य स्यात् प्रचलाप्रचलाऽभिधा। स्त्यानद्धिर्वासुदेवार्द्धवलाऽहश्चिन्तितार्थकृत् ॥२॥ मोहयति विवेकविकलं करोति प्राणिनमिति मोहः (मोहनीयम्)।

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47