Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 18
________________ (१६) "खन्ति, मदव, अजब, मुत्ति, तब सजमे अ बोद्धब्बे । सच्च, सोअ, अकिंचण च बम्भ च जइधम्मो" शान्ति (क्रोधाभाव), मार्दव (मानत्याग), आर्जव . (निष्कपटता), मुक्ति (लोभाभाव), तप (इच्छाऽनुरोध, संयम (इन्द्रियादिनिग्रह), सत्य (सत्यवालना), शौच (सत्र जीवों के सुखानुकूल वर्तना, अथवा अदत्त पदार्थ का ग्रहण नहीं करना), अकिञ्चन (सब परिग्रह का त्याग अर्थात् ममता से निवृत्ति), ब्रह्म (सर्वथा ब्रह्मचर्य का पालन) ये दश प्रकार के साधुधर्म है। जैनसाधु लोग दशप्रकार के यतिधर्म पालने के लिये अर्हन् , मिद्ध, साधु, देव और आत्मा की साक्षी देकर जनसमुदाय के बीच में प्रतिज्ञापूर्वक पञ्चमहाव्रत को ग्रहण करते हैं, कि 'हम साधुधमे अपन आत्मा के कल्याण के लिये मन, वचन और काय से पालन करेंगे । जिन पञ्चमहाव्रतों को जनशास्त्र में मूलगुण बताया है, उनकी व्याख्या क्रम से आगे की जाती है: १ अहिंसात्रत उसे कहते है, जिसमें प्रमाद अर्थात अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, योगदुष्प्रणिधान, धर्मानादर से, त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा [माणवियोग] नहीं की जानी है।

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